मिथिला नरेश जनक( Mithila Naresh Janak ) मानव रूप में साक्षात नारायण समान थे, तभी तो वे स्थितिप्रज्ञ भी कहे जाते रहे। धार्मिक अनुष्ठान, यज्ञ,आहुति, वेद, ऋचा,परोपकारी होने के साथ-साथ वे ऋषि कुल परंपरा के संवाहक भी थे। मिथिला नरेश जनक ( Mithila Naresh Janak ) की कार्य पद्धति से साम्राज्य में कहीं भी अवसाद होने की बात नहीं के बराबर थी। दान,पुण्य, न्याय व सर्वश्रेष्ठ प्रदर्शन कर जनक खुद उसके पर्यायवाची बने हुए थे। राजकीय कामकाज से जबकभी समय मिलता नरेश जनक यज्ञ की घोषणा कर बैठते। जानकी के प्रादुर्भाव से पूर्व जन कल्याण के लिए सैकड़ों अनुष्ठान करनेवाले राजा जनक को स्नेह से
ऋषि, मुनि, संतसंगत के साथ साथ आम जन भी उन्हें “विदेह जनक” से अलंकृत कर धन्य होते रहे।
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एक अवसर पर जब जनक मिथिला में लोक कल्याणार्थ यज्ञ करने बैठे थे कि ठीक उसी समय एक क्रोधी स्वभाव संत का धर्म यज्ञशाला में प्रवेश हुआ। संत का स्वभाव विचलित कर देने वाला था।क्रोध के कारण संत की भाषा भी अमर्यादित हो चली थी। दुर्वासा ऋषि समान क्रांति का सूत्र
धार बने उक्त संत को रोक पाना प्रहरियों के लिए सहज नहीं होते देख खुद अग्नि को हविष्य अर्पित करने से रोक कर तेज गति से उक्त क्रोधी स्वभाव संत के समीप आ कर,विनम्र निवेदित जनक ने उनके क्रोध का कारण पूछा तो संत ने झिड़कते हुए,सदेह खड़े राजा जनक से ही पूछ डाला कि “कहां है खुद को विदेह कहने वाला पाखंडी मिथिला नरेश जनक”? यज्ञस्थल पर सभी तरफ स्तब्धता छायी देख संत को इंकित कर, मिथिला नरेश ने आदरपूर्वक उक्त संत को चल कर पहले आसन ग्रहण करने को कहा। पल भर आसन ग्रहण करने के बाद पुनः उत्तेजित स्वर में जनक से पूछा कि “यज्ञशाला के दोनों तरफ मेला स्थल जैसा महौल है।
नृत्यांगनाएं खुद का कला प्रदर्शित कर रही हैं और उसी बीच राजन यज्ञ करने का स्वांग रचे हुए हैं। और तो और खुद को “विदेह”भी कहते हैं”! जनक ने गंभीरतापूर्वक संत की बातें सुनी और बड़े ही मनोयोग से पूछा कि महात्मा मैंने तो खुद को कभी विदेह नहीं कहा ! क्रोधी स्वभाव संत ने फिर अनुशासन भंग किया ।जनक अब एक शासक की तरह अपने अनुचरों से बोले “एक कटोरे में लबालब घी भर कर लाया जाय। पल भर में कटोरा भर घी हाजिर था।उक्त संत से राजा जनक ने दोनों हाथ जोड़ने को कहा।संत ने वैसा ही किया।अब संत की हथेली के पर उक्त घी से भरे कटोरे को रख,जनक ने आदेश दिया कि “महात्मा आप यज्ञशाला से सौ डेग तक जाएं, पुनः वापस आ कर सारा वृत्तांत बताएं कि आपने क्या कुछ देखा लेकिन कटोरे से घी न छलकने पाए, अन्यथा आप दंड के भागी बनेंगे।
आज्ञानुसार संत कटोरा भर घी लेकर चल पड़े। विशेष चौकसी बरतते हुए संत यज्ञशाला लौटे। जनक ने पूछा ..घी तो पूरा है।अब पूरा यज्ञस्थल का वृतांत सुनाया जाए। संत ने बड़ी ही विनम्रता से कहा कि “उनका सारा ध्यान तो कटोरे में रखे घी पर केंद्रित था। “और इसके अलावा वे कुछ भी नहीं देख पाए कि कहां क्या हो रहा है। राजा जनक ने कहा कि महातमन मेरा तो संपूर्ण ध्यान आहुति देने पर रहता है। मैं मात्र इस शरीर से यज्ञ का संचालन कर रहा हूं लेकिन मुझे लोग क्या कहते या किस नाम से संबोधित करते, वह तो वे ही जानें। नेपथ्य से ऋषि मुनियों ने आवाज बुलंद की “राजा विदेह..जनक विदेह । और तभी जगत जननी मां सीते को संसार वैदेही के नाम से भी जानता है।