योगस्थ होकर सूक्ष्म तरंगो का संचार जाना जा सकता है।परिवर्तन से रूपांतरण की प्रक्रिया शुरू की जा सकती है। यह हमें भौतिक स्तर पर परिवर्तित करता हुआ आध्यात्मिक रूपान्तरण की ओर ले जाता है। Yoga सिखाता है हमें शून्य होने की कला।शून्य होना, बाहर से नहीं, बल्कि भीतर से।बाहर की शून्यता मौत है, भीतरी शून्यता जीवन।अकेलेपन से एकांत की यात्रा ही है योग।अकेलेपन में शूल सदृश पीड़ा है तो एकांत में आनंद की व्याप्ति है।
जगत के विविध तापों से छुटकारा दिलाने वाले अष्टांग Yoga की बृहत् चर्चा करता है ज्योतिषशास्त्र। ब्रह्म को प्रकाशित करनेवाला ज्ञान भी ‘Yoga’ से ही सुलभ होता है। एकचित्त होना, चित्त को एक जगह स्थापित करना योग है।चित्तवृतियों के निरोध को भी Yoga कहते हैं।जीवात्मा एवं परमात्मा में ही अंतःकरण की वृत्तियों को स्थापित करना ‘Yoga’ है। भगवद्गीता में योग कर्म की कुशलता के रूप में विश्लेषित है।
परमात्मा ने मानव शरीर रूपी सुंदर सर्वसाधनसम्पन्न रथ दिया।इन्द्रिय रूपी बलवान घोड़े दिए। मन रूपी लगाम लगाकर उसे बुद्धि रूपी सारथि के हाथों सौंप दिया और जीवात्मा को उस रथ में बैठाकर-उसका स्वामी बनाकर यह बतला दिया कि वह निरंतर बुद्धि की प्रेरणा लेता रहे।इन सभी के बीच का तारतम्य समाप्त होने से बुद्धि रूपी सारथि असावधान हो जाता है, परिणामस्वरूप वह मनरूपी लगाम को इन्द्रियरूपी दुष्ट घोड़ों की इच्छा पर छोड़ देता है। परिणाम यह होता है कि जीवात्मा विषयप्रवन इन्द्रियों के अधीन होकर भटकने लगती है। इन्हीं भटकाव के रोकने की प्रक्रिया है योग।योग-विद्या मानव-मात्र के लिये है, किसी जाति, धर्म या देश विशेष के लिये नहीं है।
Yoga सिर्फ भिन्न भिन्न आसनों के द्वारा शरीर के मरोड़ने की कला या प्राणायाम के माध्यम से सांसो के मरोड़ने की कला मात्रा नहीं है।योग के द्वारा शरीर, इन्द्रियां और चित्त की शुद्धि की प्रक्रिया शुरू होती है। क्या है यह सम्पूर्ण प्रक्रिया इसकी वृहत चर्चा करता है ज्योतिषशास्त्र।कुंडली के भावों के माध्यम से चित्त की शुद्धि के लिए आठ प्रकार के योगों का वर्णन करता है, जो हैं यम, नियम आसन, प्राणायाम, प्रत्याहार,धारणा, ध्यान और समाधि।व्यक्ति की कुंडली का पहले भाव से आठवे भाव तक की यात्रा।
1 -यम (संयम ) – कुंडली का पहला भाव यम (संयम)| का है।संयम पांच प्रकार के हैं। अहिंसा, सत्य,अस्तेय,ब्रह्मचर्य और अपरिग्रह।
अहिंसा – किसी भी प्राणी को कष्ट नहीं पहुँचाना अहिंसा है।अहिंसा के दस भेद हैं । किसी को उद्वेग में डालना,संताप देना,रोगी बनाना,शरीर से रक्त निकालना, चुगली करना, किसी के हित में अत्यंत बाधा पहुँचाना, उसके छुपे हुए रहस्यों को उद्घाटित करना, दूसरों को सुख से वंचित करना, अकारण कैद करना और प्राणदंड देना।
सत्य–जो बात दूसरे प्राणियों के लिए हितकर है वह ‘सत्य‘ है। ‘सत्य’ के लक्षण हैं – सत्य बोलें किन्तु प्रिय बोलें। अप्रिय सत्य कभी न बोलें।
ब्रह्मचर्य – मैथुन के त्याग को ‘ब्रह्मचर्य’ कहते हैं। ‘ब्रह्मचर्य’ ही समस्त शुभ कर्मो की सिद्धि का मूल है। उसके बिना सारी क्रिया निष्फल हो जाती है।
अस्तेय– मन, वाणी और शरीर द्वारा चोरी से सर्वथा बचे रहना ‘अस्तेय’ कहलाता है।
अपरिग्रह – शरीर को ढकने वाला वस्त्र, शीत के कष्ट निवारण करने वाली कांथा, और खड़ाऊं, इतनी ही वस्तुएं अपने साथ रखें। इसके सिवा किसी अन्य वस्तु का संग्रह ही ‘अपरिग्रह‘ है।
कुंडली का लग्न भाव (पहला भाव ) व्यक्ति कितना संयमित है या असंयमित यह दर्शाता है।
2 नियम -कुंडली का दूसरा भाव है नियम।नियम भी पांच प्रकार के हैं जो भोग और मोक्ष प्रदान करने वाले हैं- शौच,संतोष,तप,स्वाध्याय, ईश्वराराधन।
शौच :- दो प्रकार के शौच हैं।बाह्य और आभ्यंतर।मिटटी और जल से बाह्य शुद्धि होती है। भाव की शुद्धि को आभ्यंतर शुद्धि कहते हैं।दोनों ही प्रकार से जो शुद्ध है वही शुद्ध है,दूसरा नहीं |
संतोष :- प्रारब्ध के अनुसार जो कुछ भी प्राप्त हो जाये,उसी में हर्ष मनाना ‘संतोष ‘ कहलाता है।
तप- मन और इन्द्रियों की एकाग्रता को ‘ तप‘ कहते हैं | तप तीन प्रकार का होता है। वाचिक,मानसिक और शारीरिक।मन्त्र जप आदि ‘वाचिक’,आसक्ति का त्याग‘ मानसिक ‘और देव पूजन आदि ‘शारीरिक’ तप हैं ।
स्वाध्याय- वेदाध्याय,वेदों का अध्ययन इसके अंतर्गत आता है।वेद प्रणव से ही आरम्भ होते हैं। प्रणव अर्थात ॐकार में अकार, उकार तथा अर्थमात्रा विशिष्ट मकार हैं।तीन मात्राएँ, तीनों वेद,भूः आदि तीनों लोक,तीन गुण,जाग्रत,स्वप्न और सुषुप्ति-ये तीन अवस्थाएं तथा ब्रह्मा,विष्णु और शिव ये तीनो प्रणव रूप हैं।ॐकार द्वैत की निवृति करनेवाला है।
ईश्वराराधन- मनुष्य को चाहिए कि मन से हृदय कमल में स्थित आत्मा या ब्रह्म का ध्यान करे और जिह्वा से सदा प्रणव का, ऊँकार का जप करता रहे। ‘प्रणव ‘ धनुष है, ’जीवात्मा‘ बाण है तथा ‘ब्रह्म‘ उसका लक्ष्य कहा जाता है। सावधान होकर लक्ष्य का भेदन करना चाहिए और बाण के सामान उसमे तन्मय हो जाना चाहिये।तदुपरांत जो जिस वस्तु कि इच्छा करता है उसकी प्राप्ति हो जाती है। प्रणव के भोग और मोक्ष कि सिद्धि के लिए इसका विनियोग किया जाता है।इसमें अंगन्यास,कवच और हवन किया जाता है।व्यक्ति नियमों को किस हद तक मानेगा,अपने आचरण में लाएगा इसकी विस्तृत व्याख्या करता है कुंडली का दूसरा भाव।
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3-आसन-कुंडली का तीसरा भाव है।आप संयमित होकर नियमबद्ध होकर भी नियत आसन में बैठ पाएंगे या नहीं इसकी विस्तार से चर्चा करता है तीसरा भाव। शरीर का संयम और नियम है आसन। पहले किसी पवित्र स्थान में अपने बैठने के लिए पवित्र आसन बिछायें,जो न अधिक ऊँचा हो न अधिक नीचा। सबसे नीचे कुश का आसन उसके ऊपर मृगचर्म आसन हो जिसपर कपड़े का आसन रखा हो, उस आसन पर बैठकर चित्त को एकाग्र करें। इस समय शरीर,गले और मष्तक को एक सीध में रखते हुए स्थिर बैठें।केवल अपनी नासिका के अग्र भाग को देखें।अन्य दिशाओं की तरफ दृष्टिपात न करें।पद्मासन आदि नाना प्रकार के आसन में से सुविधानुसार आसन चुनें और उस आसन में बैठें।
4 -प्राणायाम-कुंडली का चतुर्थ भाव प्राणायाम का भाव है| प्राणों का संयम और नियम है प्राणायाम। अपने शरीर के भीतर रहने वाली वायु को ‘ प्राण ‘ कहते हैं। प्राण और अपान वायु को रोकने का नाम ही प्राणायाम है।अपनी ऊँगली से नासिका के एक छिद्र को दबाकर दूसरे छिद्र से उदर स्थित वायु को बाहर निकालें। वायु को बाहर निकलने के कारण इस क्रिया को ‘ रेचक’ कहते हैं। तत्पश्चात शरीर को वायु से भरें। इस क्रिया को ‘पूरक’ कहते हैं ।वायु भर जाने के बाद साधक न तो भीतरी वायु को छोड़ता है और न ही बाहरी वायु को ग्रहण करता है वरन भरे हुए घड़े की भांति अविचल भाव से बैठा रहता है। इस प्रक्रिया को ‘कुम्भक ‘ कहते हैं । जिसमे शरीर से पसीना निकलने लगे, कंपकंपी आये ऐसा प्राणायाम उत्तम श्रेणी का माना गया है। प्राण को जीत लेने पर हिचकी और साँस के रोग दूर हो जाते हैं।निरोग होना, मन में उत्साह आना, बल बढ़ना, स्वर में माधुर्य आना तथा सब प्रकार के दोषों का नाश हो जाना,ये प्राणायाम से होने वाले लाभ हैं। प्राणायाम दो तरह के होते हैं। ‘अगर्भ ‘और ‘सगर्भ ‘।जप और धयान के बिना किया जाने वाला प्राणायाम ‘अगर्भ ‘है और जप,ध्यान के साथ किया जाने वाला प्राणायाम ‘सगर्भ’ प्राणायाम है |इन्द्रियों पर विजय पाने के लिए ‘सगर्भ’ प्राणायाम उत्तम है अतः उसी का अभ्यास करना चाहिए।शरीर को ‘रथ ‘ कहा गया है, इन्द्रियां उसके घोड़े,मन को ‘सारथि ‘ तथा प्राणायाम को ‘चाबुक’ कहा गया है।ज्ञान और वैराग्य की बागडोर में बंधे हुए मनरूपी घोड़े को प्राणायाम से आबद्ध करके जब अच्छी तरह से काबू में कर लिया जाता है तो वह धीरे धीरे स्थिर हो जाता है। प्राणायाम के द्वारा राग आदि दोषों का निवारण किया जाता है। प्राणायाम करने से इंद्रियजनित दोष दूर हो जाते हैं
5-प्रत्याहार- कुंडली का पांचवां भाव प्रत्याहार का भाव है। मन का संयम और नियम इसके अधीन है। विषयों के समुद्र में प्रवेश करके वहां फँसी हुई इन्द्रियों को लौटाकर अपने अधीन करना ‘प्रत्याहार ‘कहलाता है। इन्द्रियों को विषयों की ओर से हटाकर चित्त में लीन करना ‘ प्रत्याहार ‘ कहलाता है। अर्थात इन्द्रियां जो बiहर की ओर भiगति हैं उन्हें बाह्य विषयों से हटाकर अंतर्मुखी बनाना चाहिए। योगी पुरुष, शब्द आदि विषयों की ओर जाने वाली इन्द्रियों को योग द्वारा प्रत्याहृत (निवृत) करते हैं इसलिए यह प्रत्याहार कहलाया। आप कितना विषयों में प्रवृत होंगे या निवृत इसको कुंडली के पंचम भाव को और पंचमेश के साथ बनने वाले योगों के अनुसार भली भांति समझा जा सकता है। यम, नियम, आसन, प्राणायाम और प्रत्याहार ये पांच अंग बाह्य साधन हैं। धारणा, ध्यान और समाधि अंतरंग साधन हैं।
6-धारणा-कुंडली का छठा भाव धारण करने का भाव है। मन को संयमित और नियमित करना इसके अंतर्गत आता है। मन को संयमित और नियंत्रित करने हेतु दो भाव, पंचम भाव और छठा भाव आते हैं। ध्येय वास्तु में जो मन की स्थिति होती है उसे धारणा कहते हैं। देह के भीतर नियत समय तक जो मन को रोक कर रखा जाता है और वह अपने लक्ष्य से विचलित नहीं होता यही अवस्था ‘धारणा’ कहलाती है। बारह आयाम की ‘धारणा’ होती है। जिस अंग में व्याधि की सम्भावना हो, उस अंग को बुद्धि से व्याप्त करके तत्वों की धारणा करनी चाहिए।आग्नेयी, वारुणी, ऐशानि और अमृतात्मिका चार प्रकार की धारणा करनी चाहिए। आग्नेयी धारणा- पैर के अंगूठे से लेकर माथे तक किरणों का समूह व्याप्त है और वह बड़ी तेजी के साथ इधर उधर फैलता है। साधक को तब तक इस रश्मिमंडल का चिंतन करते रहना चाहिए जबतक की वह अपने सम्पूर्ण शरीर को उसके भीतर भस्म होता न देखे।इसके द्वारा शीत और श्लेष्मा का उपचार किया जाता है। वारुणी धारणा- स्थिर भाव से विचार करते हुए मस्तक और कंठ के अधोमुख होने का चिंतन करें। साधक अपने अंतःकरण द्वारा ध्यान में लग जाए और ऐसी धारणा करे कि जल के अनंत कण प्रकट होकर एक दूसरे से मिलकर हिमराशि को उत्पन्न करते हैं और उससे इस पृथ्वी पर जल कि धाराएं प्रवाहित होकर सम्पूर्ण धरा को जल से आप्लावित कर रहे हैं ।इस प्रकार उस शीतल अमृत स्वरुप जल के द्वारा ब्रह्मरंध्र से लेकर मूलाधार पर्यन्त सम्पूर्ण चक्रमण्डल को आप्लावित करके सुषुम्ना नाड़ी के भीतर होकर पूर्ण चंद्र मंडल का चिंतन करें।आलस्य छोड़कर साथ में विष्णु मंत्र का जप करें ऐशानि धारणा- प्राण और अपान का क्षय होने पर ह्रदय आकाश में कमल के ऊपर विराजमान भगवान विष्णु के अनुग्रह का चिंतन करें । यह चिंतन तब तक करें जब तक कि सारी चिंता का नाश न हो जाए। उस परम तत्व का साक्षात्कार हो जाने पर ब्रह्मा से लेकर यह सारा चराचर जगत, ध्याता,ध्यान और ध्येय सबकुछ हृदय कमल में लीन हो जाता है। अमृतमयी धारणा- मस्तक की नाड़ी के केंद्र स्थान में पूर्ण चन्द्रमा के समान आकारवाले कमल का ध्यान करें। यह भावना करें कि आकाश में दस हज़ार चन्द्रमा के समान प्रकाशमान एक पूर्ण चन्द्रमण्डल उदित हुआ है जो कल्याणमय रश्मियों से परिपूर्ण है।ऐसा ही ध्यान अपने ह्रदय कमल में भी करें और उसके मध्य भाग में अपने शरीर को स्थित देखें। इससे साधक के सभी क्लेश दूर हो जाते हैं। किसी एक स्थान में चित्त बंधेगा या नहीं इसे कुंडली के छठे भाव और भावेश से समझा जा सकता है।
7- ध्यान- कुंडली का सप्तम भाव ध्यान का भाव,चित्त की वृतियां जब निरंतर एक ही आकार के रूप में प्रवाहित होने लगे तब इसे ध्यान कहते हैं। स्थिर चित्त से भगवान का बारम्बार चिंतन करना ‘ध्यान’ कहलाता है।समस्त उपधियों से मुक्त मन सहित आत्मा का ब्रह्म विचार में परायण होना भी ‘ ध्यान’ ही है। मनुष्य को चाहिए कि वह ध्याता,ध्येय तथा ध्यान का ज्ञान प्राप्त करके Yoga का अभ्यास शुरू करे। Yoga से मोक्ष तथा आठ प्रकार की सिद्धिओं की प्राप्ति होती है जो ज्ञान, वैराग्य से संपन्न,क्षमाशील तथा हमेशा उत्साह रखनेवाला हो ऐसा मनुष्य ही ‘ध्येता’ कहलाता है। व्यक्त और अव्यक्त सभी को परमात्मा का स्वरुप समझकर चिंतन करना ‘ध्यान ‘कहलाता है।परमेश्वर ही ध्येय हैं।ध्यान यज्ञ श्रेष्ठ और सभी दोषों से रहित है। ध्यान अंतःकरण की शुद्धि का प्रमुख साधन और चित्त को वश में करनेवाला है। पहले विकारयुक्त, अव्यक्त तथा भोग्य भोग से युक्त तीनों गुणों का क्रमशः अपने ह्रदय में ध्यान करें।तमोगुण को रजोगुण से और रजोगुण को सत्वगुण से आच्छादित करें।ध्यान से थक जाने पर जप करें और जप से थक जाने पर ध्यान करें | यह क्रम जारी रखें। इसकी वजह से व्याधि और ग्रह मनुष्य के पास नहीं फटकने पाते तथा विजयरूपी फल की प्राप्ति होती है।
8- समाधि- कुंडली का आठवां भाव समाधि का भाव, एकाग्रता का भाव। ध्येय में चित्त की विक्षेप रहित एकाग्रता ही समाधि है । यहाँ ध्यान, ध्येय वस्तु का रूप धारण कर लेता है।दो प्रकार की समाधि है –
सम्प्रज्ञात (इसके भी चार प्रकार हैं), और असम्प्रज्ञात ( इसके दो प्रकार हैं )|
” जो चैतन्य रूप से युक्त और प्रशांत समुद्र की भांति स्थिर हो, जिसमे आत्मा के सिवा अन्य किसी चीज की प्रतीति न होती हो, उस ध्यान को ‘समाधि’ कहते हैं। जो ध्यान के समय अपने चित्त को ध्येय में लगाकर वायुहीन प्रदेश में अग्निशिखा की भांति अविचल एवं स्थिर भाव से बैठा रहता है वह ‘समाधिस्थ’ कहा गया है”
अंतस और बाह्य का मेल कराने वाला है ज्योतिषशास्त्र
” इन्द्रे श्रेष्ठं ज्योतिषां ज्योतिः आ अगात चित्रः प्रकेतः अजनिष्ट विडंबा ”
( प्रकेतः – अंतस प्रकाश )
निरंतर सीखते रहना, विकसित होना और इस विकास यात्रा में अंतस और बाह्य का सम्यक Yoga करने का शास्त्र है ज्योतिषशास्त्र। यह शास्त्र Yoga का सम्पूर्णता में दर्शन करवाता है। देह सब प्रकार के रोग और दुखों का आश्रय है। परन्तु योगयुक्त हो जाने से किसी भी प्रकार का क्लेश नहीं रह जाता है।
जरूरी है कि हम इन आठों Yoga का अभ्यास करें। सिर्फ तरह तरह के आसन द्वारा शरीर का तोड़ मरोड़ करना या भिन्न भिन्न प्राणायाम के द्वारा सांसों का तोड़ मरोड़ न करें बल्कि यम से शुरू करके नियम , आसन, प्राणायाम, प्रत्याहार,धारणा, ध्यान और समाधि का एक दूसरे के साथ लय स्थापित करें। क्रमबद्ध रूप से सबके बीच एक सम्यक गति स्थापित करें। इस गति को स्थापित करने में सहायक है ज्योतिष। ज्योतिष के माध्यम से हम इन गतियों में, इनकी लय में कहाँ गतिहीनता है या कहाँ लय टूटा है,जान सकते हैं। हिब्रू भाषा में Spirit का अर्थ होता है सांस। इसे कब और कैसे spirituality,आध्यात्म् से जोड़ा गया खबर नहीं। हाँ ,हमारी सांसें आध्यात्मिकता की ओर अग्रसर होने में एक पायदान जरूर है।आध्यात्मिकता को पूर्ण रुप में समझने में ज्योतिषशास्त्र हमारा दिशा निर्देश करता है ,कुंडली का चतुर्थ भाव (प्राणायाम,) ,पंचम् भाव ( प्रत्याहार),छठा भाव ( धारणा), सप्तम् भाव (ध्यान) एवं अष्टम् भाव समाधि,deep focus ) के बीच तारतम्य बैठाकर नवम् भाव (गुरु) के आशीर्वाद से किए गए कर्मों (दशम भाव) द्वारा तथा सूर्य (आत्मा) ,चंद्र (मन),बुध (बुद्धि) के बीच सम्यक् योगों के योगदान से। जैसे बत्ती, तेल और तैल पात्र इन तीनो के संयोग से ही दीपक की स्थिति है। इनमे से एक के आभाव में दीपक नहीं रह सकता, उसी प्रकार Yoga और ज्योतिष है।ये दोनों एक दूसरे के पूरक हैं ।,इन दोनों का सम्यक समावेश हो जाए तो शरीर रोगमुक्त,क् लेशमुक्त हो जाए।
कृष्णा नारायण
( लेखिका ज्योतिष और योग के जानकार हैं)