अब भी दिल्ली है अस्त व्यस्त
मुकेश महान. लगभग डेढ़ महीने होने को हैं। देश भर के किसान अपने ही देश में अपना घर-बार और खेती खलिहानी छोड़ कर राजधानी दिल्ली में डेरा डाले हुए हैं। मकसद है सरकार और सरकार द्वारा हालिया लागू किये गए तीन कृषि सुधार कानून का विरोध करना।स्थिति यह है कि कृषि क्षेत्र में लाए इन तीन कानूनों के विरोध में किसान सड़कों पर आंदोलन कर रहे हैं। इस बीच कई दौर की वार्ताएं भी सरकार और किसानों के बीच होती रही लेकिन नतीजा वही ढाक के तीन पात वाली रही। दरअसल किसानों को आशंका है कि इन सुधारों के बहाने सरकार एमएसपी (न्यूनतम समर्थन मूल्य) पर फसलों की सरकारी खरीद और वर्तमान मंडी व्यवस्था से अपना पल्ला झाड़कर और क्षेत्रों की तरह कृषि बाजार का भी निजीकरण करना चाहती है।
जबकि सरकार का कहना है कि इन तीन सुधारवादी कानूनों से कृषि उपज की बिक्री हेतु एक नई वैकल्पिक व्यवस्था तैयार होगी, जो वर्तमान मंडी व एमएसपी व्यवस्था के साथ-साथ चलती रहेगी। इससे फसलों के भंडारण, विपणन, प्रसंस्करण, निर्यात आदि क्षेत्रों में निवेश बढ़ेगा और साथ ही किसानों की आमदनी भी बढ़ेगी।
पहले कानून में किसानों को अधिसूचित मंडियों के अलावा भी अपनी उपज को कहीं भी बेचने की छूट प्रदान की गई है। सरकार का दावा है कि इससे किसान मंडियों में होने वाले शोषण से बचेंगे, किसान की फसल के ज्यादा खरीददार होंगे और किसानों को फसलों की अच्छी कीमत मिलेगी।
दूसरा कानून ‘अनुबंध कृषि’ से संबंधित है जो बुवाई से पहले ही किसान को अपनी फसल तय मानकों और कीमत के अनुसार बेचने का अनुबंध करने की सुविधा देता है। तीसरा कानून ‘आवश्यक वस्तु अधिनियम’ में संशोधन से संबंधित है जिससे अनाज, खाद्य तेल, तिलहन, दलहन, आलू और प्याज़ सहित सभी कृषि खाद्य पदार्थ अब नियंत्रण से मुक्त होंगे। इन वस्तुओं पर कुछ विशेष परिस्थितियों के अलावा स्टॉक की सीमा भी अब नहीं होगी।
तमाम दावों के बावजूद किसानों की आशंकाओं को दूर करने में सरकार अब तक असफल रही है।किसानों का कहना है कि वर्तमान मंडी और एमएसपी पर फसलों की सरकारी क्रय की व्यवस्था इन सुधारों के कारण किसी भी तरह से कमज़ोर ना पड़े। अभी मंडियों में फसलों की खरीद पर 8.5 प्रतिशत तक टैक्स लगाया जा रहा है परंतु नई व्यवस्था में मंडियों के बाहर कोई टैक्स नहीं लगेगा।
इससे मंडियों से व्यापार बाहर जाने और कालांतर में मंडियां बंद होने की आशंका निराधार नहीं है। अतः निजी क्षेत्र द्वारा फसलों की खरीद हो या सरकारी मंडी के माध्यम से, दोनों ही व्यवस्थाओं में टैक्स के प्रावधानों में भी समानता होनी चाहिए।
किसान निजी क्षेत्र द्वारा भी कम से कम एमएसपी पर फसलों की खरीद की वैधानिक गारंटी चाहते हैं। किसानों से एमएसपी से नीचे फसलों की खरीद कानूनी रूप से वर्जित हो। किसानों की मांग है कि विवाद निस्तारण में न्यायालय जाने की भी छूट मिले।
दूसरी ओर सरकार और किसानों के बीच सहमती नहीं बन पा रही है। उल्टे अब किसानों का धैर्य भी जवाब दे रहा है।वो सरकार को धमकी भी दे रहे हैं कि अगर उनकी बातें नहीं मानी गईं तो आंदोलन का रूख और तेज और आक्रामक होगा। यहां तक कि 26 जनवरी तक ट्रैक्टर परेड करने की धमकी भी किसानों ने दी है।
आम लोगों को भी यह समझ नहीं आ रहा है कि अगर ये तीनों कानून किसान हित में हैं तो सरकार किसानो को समझा क्यों नहीं पा रही है और किसान समझ क्यों नहीं पा रहे हैं। दूसरी ओर लोग यह भी समझ नहीं पा रहे हैं कि अगर किसान का पक्ष पक्ष मजबूत है और मांगे जायज है तो सरकार उनकी मांगो को सुनना क्यों नहीं चाहती है। क्यों दोनों पक्ष एक कामन विंदु पर सहमत नहीं हो पा रहे हैं।
कुल मिलाकर ऐसा लगता है कि सरकार और किसान दोनों ने इसे प्रतिष्छा का प्रश्न बना लिया है। यह कानून दोनों के लिए मूछों की लड़ाई बन गई है। इस अहं की लड़ाई में देश का नुकसान तो हो ही रहा है।साथ ही अंतरराष्ट्रीय स्तर पर छवि भी प्रभवित हो रही है। इसके बावजूद कोई झुकने को तैयार नहीं है।
किसान चाहते हैं कि सभी कृषि जिंसों के व्यापारियों का पंजीकरण अनिवार्य रूप से किया जाए। छोटे और सीमांत किसानों के अधिकारों और जमीन के मालिकाना हक का पुख्ता संरक्षण किया जाए। प्रदूषण कानून और बिजली संशोधन बिल में भी उचित प्रावधान जोड़कर किसानों के अधिकार सुरक्षित किए जाएं।
कुछ तथ्य
एमएसपी पर सरकारी खरीद की व्यवस्था किसानों के लिए बहुत महत्वपूर्ण प्रश्न है। हमारे देश में 23 फसलों की एमएसपी घोषित होती है। इसमें मुख्य रूप से खाद्यान्न- गेहूं, धान, मोटे अनाज, दालें, तिलहन, गन्ना व कपास जैसी कुछ नकदी फसलें शामिल हैं। दूध, फल, सब्ज़ियों, मांस, अंडे आदि की एमएसपी घोषित नहीं होती।
2019-20 में एमएसपी पर खरीदी जाने वाली फसलों में से गेहूं और चावल (धान के रूप में) दोनों को जोड़कर लगभग 2.15 लाख करोड़ रुपये मूल्य की सरकारी खरीद एमएसपी पर की गई। चावल के कुल 11.84 करोड़ टन उत्पादन में से 5.14 करोड़ टन यानी 43 प्रतिशत एमएसपी पर सरकारी खरीद हुई।
इसी प्रकार गेहूं के 10.76 करोड़ टन उत्पादन में से 3.90 करोड़ टन यानी 36 प्रतिशत सरकारी खरीद हुई। गन्ने की फसल की भी लगभग 80 प्रतिशत खरीद सरकारी रेट पर हुई जिसका मूल्य लगभग 75,000 करोड़ रुपये था।
उत्तर भारत के किसानों ने काफ़ी लंबे समय के बाद राजधानी दिल्ली को अपने विरोध का गढ़ बनाया है. दिल्ली में जो देखने को मिल रहा है वो 32 साल पहले दिखा था.