Pitru Paksha Special : सनातन संस्कृति में जीवन की गति व सद्गति को बड़े ही मनोयोग से बताया गया है. परंपरागत शैली में इस अध्याय को “कर्मकांड”से संबोधित किया जाता रहा है और जीवन के साथ ही नहीं, अपितु जीवन के बाद भी इस नश्वर शरीर का हमसे नाता जुडा हुआ माना गया है। तभी तो उन्हें देवलोक का सद्यः पितर-पितराइन की संज्ञा दी गई. उन्हें उनके जीवनोपरांत हम समर्पित भाव से वर्ष में आश्विन मास के पक्ष में पितृपक्ष का श्रद्धा समर्पित किया करते हैं.
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तन,मन, धन के मनोयोग को सुचिता और पवित्रता के साथ तर्पण विधि से निर्धारित हिन्दी तिथि के अनुसार पितर को आह्वान करना ही पितृ का संबंध सूचक है. श्रद्धा से परिमार्जित पंद्रह दिनों के
पितरपक्ष को सनातनधर्म.के इस व्यवस्था में विशेष दर्जा दिया गया है. तिथिवार अपने प्राणों से प्रिय मातृ एवं पितृ कुल से जुड़े सभी सगे-संबंधी तर्पण व पिंडदान के हकदार समझे जाते हैं .
अमुमन निर्धारित तिथि विशेष को कर्ता पुत्र के द्वारा सिरमुंडन कर कर्म करने का उपक्रम को शुरु किया जाता है जिसमें तिल,जल, कुश, अक्षत, जौव, का महत्वपूर्ण योगदान है.इस कार्य को करने वाले संतति उस तिथि को ” एक भुक्त” यानि एक ही शाम अन्न खाते हैं. मान्यता है कि पितृपक्ष में गोलोकधाम सभी पितर देवलोक से पृथ्वी पर अपने संततियों के हाथों जलग्रहण कर तृप्त होते हैं. क्षुधा की तृप्ति समर्पित भाव से करना हिन्दू सनातनियों का खास कृत्य कहलाता है .इसे पितरों का आदरकाल भी कहा जाता है.
चुकि सनातनी संस्कृति व पुराणों में तथ्यात्मक व्याख्या की गई है कि हम सभी अपने पूर्वज के कुल वंशज हैं अतः यह देहनिधि पितरों की कृपा पर टिका हुआ है। अपने वंश के प्रति समर्पित भाव से युक्त सेवा को पितृऋण से जोड़ कर देखना ही सनातन संस्कृति का प्रथम सोपान माना जाता है.”तस्मैस्वधा” परलोक गामी पितर को प्रिय है जिसे हम “श्रेष्ठ श्रद्धा” का द्योतक मानते हैं .स्वाहा स्वधा से भी अधिक मिथिला कर्मकांडी “स्वधा स्वाहा”नमोस्तुते का भाव अर्पित करते हैं।सूक्ष्म रूप से जीव दर्शन ही भारतीयता का पितृऋण माना गया है.