देश के पहले राष्ट्रपति थे देशरत्न डा. राजेन्द्र प्रसाद । जितेन्द्र कुमार सिन्हा। भारतीय स्वतंत्रता संग्राम के महान योद्धा, अपनी सेवा, लगन और साधनामय जीवन, विशाल एवं विलक्षण व्यक्तित्व, योग्यता, नम्रता, सच्चाई, सरलता, निस्पृहता और स्वतंत्र भारत के प्रथम राष्ट्रपति देशरत्न डॉ० राजेन्द्र प्रसाद का जन्म बिहार राज्य के सारण जिला स्थित जीरादेई ग्राम में 3 दिसम्बर,1884 को एक सम्पन्न कायस्थ परिवार में हुआ था। उनकी ऐसी कहानी आज भी इतिहास के पन्नों में स्वर्णाक्षरों में अंकित है। माना जाता है कि उनका जीवन वस्तुतः मानसरोवर के जल से भी ज्यादा पवित्र और निर्मल था। बिहार की पुण्य सलिला भूमि को इस बात का गौरव है कि उसने डॉ. राजेन्द्र प्रसाद जैसे रत्न को पैदा किया।
डा. राजेन्द्र प्रसाद के पिता महादेव सहाय भी उदारता, करूणा और कर्तव्यनिष्ठता के मूर्तस्वरूप थे। फारसी और संस्कृत के अच्छे विद्वान, आयुर्वेद चिकित्सा पद्धति का गहरा अध्ययन, करने के कारण एक सुदक्ष वैघ के रूप में प्रसिद्ध थे, जिसके कारण इनसे चिकित्सा कराने के लिए दूर-दराज के रोगी आया करते थे और वे सभी का निःशुल्क चिकित्सा करते थे। डॉ० राजेन्द्र प्रसाद की माता एक धर्मपरायण महिला थी। नित्य सुवह बालक राजेन्द्र प्रसाद को रामायण और गीता का पाठ-भजन सुनाया करती थी, जिसका असर राजेन्द्र प्रसाद के जीवन पर गहरा प्रभाव डाला था।
डॉ. राजेन्द्र प्रसाद का अक्षरारम्भ एक मौलवी साहब ने कराया था, इसलिए वे उर्दू और फारसी के भी जानकार थे। वर्ष 1902 में उन्होंने अपनी लगन, प्रतिभा और परिश्रम के कारण मैट्रिक की परीक्षा में प्रथम स्थान में प्रथम प्राप्त किया था। उन दिनों कलकत्ता विश्व विद्यालय पूरे उत्तर-पूर्व भारत अर्थात् बंगाल, बिहार, उड़ीसा और असम का प्रमुख शिक्षा केन्द्र था। विश्वविद्यालय के इतिहास में यह पहला अवसर था जब कोई बिहारी विद्यार्थी प्रथम स्थान प्राप्त किया था। कहा जाता है कि मैट्रिक बोर्ड परीक्षा की कॉपी जांच करने वाले शिक्षक ने उनकी कॉपी पर लिखा था कि एक्जामिनी इज द बेटर देन एक्जामिनर। यह भारत के एकेडमिक इतिहास इकलौता उदाहरण है। उसके बाद उन्होंने आगे की पढ़ाई कलकत्ता के प्रेसिडेन्सी कॉलेज से की, जहां से उन्होंने एमए और बीएल की परीक्षा पास की। उन्होंने कलकत्ता विश्वविद्यालय से एमएल की परीक्षा में सर्वोच्च स्थान प्राप्त किया था।
डॉ. राजेन्द्र प्रसाद विद्यार्थी जीवन से ही लोकमान्य तिलक, लाला लाजपत राय, विपिन चन्द्र पाल, अरविन्द घोष, मदन मोहन मालवीय, दादा भाई नरौजी जैसे नेताओं के भाषणों को सुना करते थे तथा कांग्रेस के प्रति मन में अपार श्रद्धा रहती थी। वर्ष 1912 के अप्रील से बिहार नया प्रांत बना और 1916 में पटना उच्च न्यायालय खुलने के बाद से सभी बिहारी वकील कलकत्ता से पटना आ गए। डॉ. राजेन्द्र प्रसाद भी उनके साथ पटना आकर वकालत करने लगे थे।
डा. राजेन्द्र प्रसाद 1917-18 में महात्मा गाँधी के चम्पारण आने पर चम्पारण के पूरे दौरे पर महात्मा गाँधी के साथ रहे थे। वर्ष 1906 में कलकत्ता में कांग्रेस का वार्षिक अधिवेशन में उन्होंने स्वयं सेवक के रूप में काम किया था और पहली बार उन्होंने सरोजनी नायडू, मदन मोहन मालवीय और मोहम्मद अली जिन्ना के भाषण सुने थे। कलकत्ता में जब दूसरी बार 1911 में कांग्रेस का अधिवेशन हुआ तो उसमें वकायदा उसके सदस्य बन गये थे। उसके बाद वे अखिल भारतीय कांग्रेस समिति के सदस्य निर्वाचित हुए।
डा. राजेन्द्र प्रसाद के नेतृत्व में बिहार के असंख्य कार्यकर्ताओं ने स्वराज्य और असहयोग के संदेश को गाँव-गाँव पहुँचाया। उन्होंने वर्ष 1918 में बिहार के प्रसिद्ध अंग्रेजी दैनिक ‘‘सर्चलाईट’’ की स्थापना की। एक हिन्दी साप्ताहिक ‘‘देश’’ का प्रकाशन किया और विद्यापीठ की स्थापना की। वे 1924 में हिन्दी साहित्य सम्मेलन के सभापति बने तथा 1926 में बिहार प्रान्तीय हिन्दी साहित्य सम्मेलन के सभापति भी बनाये गये थे।
देशरत्न राजेंद्र प्रसाद ने वर्ष 1930 में नमक सत्याग्रह आन्दोलन को सफल बनाने में महथी भूमिका अदा की थी। उन्होंने जिलों का दौरा करके, कार्यकलापों का निरीक्षण करके, आम सभाओं में व्याख्यान देकर और सत्याग्रहियों को प्रोत्साहित कर बिहार में इस आन्दोलन का नेतृत्व किया था। कांग्रेस का 48वाँ अधिवेशन बम्बई में हुआ था और डॉ. राजेन्द्र प्रसाद इसके अध्यक्ष बनाये गये थे। उन्होंने अपने सभापतित्व काल में गाँधी जी को कांग्रेस के दिन-प्रतिदिन के कार्यों से प्रायः मुक्त कर दिया था। देश और यूरोप के द्वितीय महायुद्ध की भयानक स्थिति के संदर्भ में 8 अगस्त 1942 की रात में कांग्रेस ने एक प्रस्ताव स्वीकृत किया था, जिसमें गांधी जी के ‘‘करो या मरो’’ मंत्र के साथ देश का आह्वान किया गया था। इस समय पटना के सदाकत आश्रम में डॉ. राजेन्द्र प्रसाद अस्वस्थ थे। किन्तु उनकी अस्वस्थता के वावजूद उन्हें गिरफ्तार कर बांकीपुर जेल भेज दिया गया था। उन्हें लगभग 3 वर्षों तक जेल में रहना पड़ा।
चुनाव और अन्तरिम सरकार की स्थापना में अनेक राजनैतिक उलट-फेर और परिवर्तन के बाद 2 सितम्बर 1946 को भारत में अन्तरिम सरकार की स्थापना हुई थी। इस सरकार में 12 मंत्री मनोनीत हुए जिसमें डॉ. राजेन्द्र प्रसाद भी एक थे और इन्हें देश का कृषि और खाद्य मंत्री का दायित्व सौंपा गया था। उस समय देश में भयंकर खाद्य संकट उत्पन्न था। डॉ. राजेन्द्र प्रसाद ने देश को सुदृढ़ करने के उद्देश्य से लोगों को कृषि उत्पादन के साथ-साथ दूध, मछली, मांस, तेल, फल एवं साग-सब्जियों का उत्पादन बढ़ाने की भी सलाह दी थी और इस प्रयास से अन्न संकट को कम करने में काफी सफलता मिली थी।
डा. राजेन्द्र प्रसाद सर्वसम्मति से 11 दिसम्बर 1946 को संविधान सभा के अध्यक्ष चुने गये थे। उसके बाद 26 जनवरी, 1950 को भारतीय गणतंत्र के अंतरिम राष्ट्रपति मनोनीत हुए थे। वर्ष 1952 में देश में प्रथम आम चुनाव हुआ और भारतीय गणतंत्र के प्रथम राष्ट्रपति विधिवत निर्वाचित हुए। इस समय भारत कठिन और संक्रमण के दौर से गुजर रहा था। देश में रूढ़ियों, अंध-विश्वासों, अशिक्षा, बेरोजगारी आदि सैंकड़ों बुराईयां व्याप्त थी। ऐसी स्थिति में उन्होंने पद की गरीमा, धीरता, गम्भीरता, दूरदर्शिता जैसे विलक्षण, बुद्धिसम्पन्न, चरित्रवान, मेधावी, बलबूते की बदौलत आडम्बर और तरक भरक से उपर उठकर सादगी, प्रेम, सच्ची सेवा, शिष्टाचार के साथ महत्वपूर्ण मामलों में सदैव रूचि लेते रहे थे।
राजेन्द्र प्रसाद के भव्य व्यक्तित्व और शालीनता के कायल थे विदेशी नागरिक, राष्ट्रनायक, कवि, कलाकार, वैज्ञानिक, जो विदेशों से आकर उनसे मिलते थे। जेनेवा विश्व पार्लियामेंट्री सम्मेलन के महामंत्री आन्द्रेनो ने उनसे मिलने के बाद कहा था कि- डॉ० प्रसाद अत्यन्त विनम्र व्यक्ति हैं। उनकी विनम्रता उनकी आकृति पर स्पष्ट अंकित रहती है। जब मैं उनसे हाथ मिला रहा था तो उसी समय मुझे मालूम हो गया कि यह कितनी बड़ी शक्ति है जो राख में ढकी आग जैसी लगी और लगा की उनकी विनम्रता के भीतर कोई अप्रतिम महत्ता मुझे झांक रही हो। मैंने अनेक महापुरूषों से हाथ मिलाया, पर डॉ. राजेन्द्र प्रसाद से हाथ मिलाने की बात कभी नहीं भूल सकता।’’
राजेन्द्र प्रसाद ने 12 वर्षों तक राष्ट्रपति पद को सुषोभित किया, अलंकृत किया और राष्ट्रपति पद की गुण-गरिमा को बढ़ाया। इनके संबंध में डॉ० राधाकृष्णन की उक्ति थी कि ‘‘उनमें जनक, बुद्ध, और महात्मा गाँधी की छाप थी’’ जो अक्षरशः सत्य भी है। भारतीय स्वतंत्रता संग्राम, स्वाधीनता की प्राप्ति, गणराज्य की स्थापना और उसके बाद 12 वर्षों तक देश के राष्ट्रपति रहने के बाद दिनांक 28 फरवरी, 1963 को पटना स्थित सदाकत आश्रम में स्वाधीनता के इस साधक का स्वर्गवास हो गया।
जितेन्द्र कुमार सिन्हा