होली विशेषः होली एक ऐसा मादक कर देने वाला त्योहार है जिसके आने के सप्ताह भर पहले से लोगों के मन में और फिजाओं में मादकता महसूस की जाने लगती है। यहां तक कि कवि भी इससे अछूते नहीं होते। ऐसे समय कवियों की रचित रचनाएं भी मादक रसों से भरपूपर होती हैं। जरा नजर डालिए इन पंक्तियों पर देखिए होली की इस ठिठोली में मादकता का कितना रस भरा है।
“मत मारो लठन की चोट रसिया, होरी में लग जाबेगी।
अब बच सको तो बच रे रसिया मैं तो तोहे लाठी मारूंगी”।।
राधा व कृष्ण की होली भी कवियों के प्रेरणादायक रही है। मान्यता यह भी है कि दो तरफा हास-परिहास के साथ अनुनय-विनय का संगम स्थल है होली। मसलन जिसकी “हो ली“ उसी की होली। तभी तो ग्वाल-वाल के बीच गोपियाँ भी निडर बन टोली बना कर ठिठोली पर उतर जाती हैं और स्नेह की परिपाटी व्रज से निकल कर संपूर्ण भारत को होली में सराबोर करती हुई फाग गायन के साथ ढ़ोल, मजीरा, ताल-झाल, डफली व जोगीरा गायन से हरेक दालान व आंगन की सुध-बुध एक मदमस्त फगुनहट की सोंधी महक का एहसास फिजाओं में होने लगता है।
व्रज की होली से ठिठोली का यदि विलोप कर दिया जाय तो संभव है कि होली,निरस हो जाए। बसंत पंचमी के बाद से ही जो मादकता सी महसूस की जाती रही है वह होली के दिन चरम पर रहती है। यह मात्र कवि की कल्पनाओं में नहीं बल्कि वास्तविक फिजाओं में भी प्रत्यक्ष दिखाई देती है.ऐसे में व्रज के नर-नारी कान्हा से क्यों न सरोकार रखें।
भक्त शिरोमणि को आसक्त बनाने का श्रेय गोपियों को है और निर्वाह करते रहना भक्तवत्सल की उद्दात्त मति। इसीके चलते व्रज
की होली को प्रेमोत्सव का सबसे बड़ा प्रतीक माना जाता है। राधा प्रेम की धारा है तो कन्हैया उस धारा की स्नेहाद्वेलित गति। स्थानीय गायकों की टोली, टेसू के फूल, गुलाल के साथ ढोल-मजीरा व जोगीरा के थाप से होली की महत्ता को बढ़ाते नजर आती है तो वहीं नव यौवनाएं खुद को कान्हा की स्नेहाकांक्षी बन कल्पना में खो जाती हैं।
कवि रसखान ने भी लिखा है.. ‘कर कुंकुम लै करि कंजमुखी,
प्रिय के दृग लावन कौ धमकै। रसखान गुलाल की घूंधर में, व्रजबालन की दुति यौं दमकै।
आह और वाह की पराकाष्ठा है इस व्रज की ऊर्वरा भूमि में। अपने आराध्य के स्नेह में भक्त का रसखान बन जाना, सूरदास की शैलिवद्धता का प्रासंगिक हो जाना,व्रज के नर-नारियों की लठ मार बरसाने की होली को यादों में बसे रहना केवल संयोग नहीं है, बल्कि स्नेहाकांक्षी व रेखांकित करने योग्य पदावली बन कर बरबस होली के रंग, कान्हा के संग की याद दिलाती है।
कवि सूरदास जी की कालजयी पदावली का रसास्वादन तो कृष्ण के बिना संभव ही नहीं…। अतृप्त सी नयनों की परिभाषा में लुप्तप्राय नेत्रज्योति में बिंब बन कर मां सरस्वती की अविरल धारा से कवि शिरोमणि बन जाना,सामान्य बात नहीं!
“सुरदास प्रभु तुमरे दरस को, राधा अचल सुहाग री …”
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नंद क्षेत्र के हुरियारे की अबोध सी बोली से प्रस्फुटित लठमार फाग गायन आंतरिक अठखेलियाँ से ही तृप्त हो जाती हैं।
“मत मारो लठन की चोट रसिया, होरी में लग जाबेगी. अब बच सको तो बच रे रसिया मैं तो तोहे लाठी मारूंगी.”
इन छेड़छाड़ के बोल का अंदाज भी निराला है।सूरदास ने दृष्टि तो नहीं पायी लेकिन दृष्टिकोण पा लिया जो भाग्यवंत ही प्राप्त करते हैं। तभी तो यमुना तट के मदमस्त बोल आज भी प्रचलित हैं..।
“होरी खेलत यमुना के तट, कुंजनि तट बनवारी । दूत सखियन की मंडल, जोरे श्री वृषभान दुलारी ।”
आज शाब्दिक तौर पर होलीगीत भले ही द्वि अर्थी और इस उत्सव का विखंडित स्वरूप सामने आ गया है लेकिन आज भी डंफे की थाप पर जब वास्तविक होरी गाई जाती है तो मन का सभी मलाल इस गुलाल की टेसू की तरह सुर्ख हो जाती हैं।
अवध में होरी खेलत राम नरेश…की बोली से काशी की होली के बोल बाबा विश्वनाथ पर जा टिकती है। काशी में…मसाने में बाबा खेलै होरी ..हो .. तो मिथिला में दुलारे राम-लखन की थोड़ी, खेलत होरी..
जो भी हो मदमस्त होली, शतरंगी होली या फिर रंगबिरंगी होली, जबतक जोगीरा,फाग गायन के साथ ठंढ़ई भरी मस्ती न चढ़े तब तक होली सूना …और अगर ये सब साथ में हो तो हो जाय दुना।
शंभुदेव झा (लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं।)