भोजपुर,अनमोल कुमार। भोजपुरी के शेक्सपियर भिखारी ठाकुर के नाम पर हजारों लोग अमीर बन गए हैं लेकिन आज भी भिखारी ठाकुर के परिजन फटेहाल स्थिति में किसी तरह अपना गुजर-बसर कर रहे हैं और उनकी सुध लेने की फुर्सत ना राज्य सरकार को है और न ही उन संस्थाओं को, जो भिखारी ठाकुर के नाम पर प्रतिवर्ष लाखों करोड़ों के अनुदान प्राप्त करते हैं।
लोक संस्कृति के वाहक कवि व भोजपुरी के शेक्सपियर माने जाने वाले भिखारी ठाकुर की जयंती 18 दिसंबर को मनाई जाती है। लेकिन क्या कोई यकीन कर सकता है कि भक्तिकालीन भक्त कवियों व रीत कालीन कवियों के संधि स्थल पर कैथी लिपि में कलम चलाकर फिर रामलीला, कृष्णलीला, विदेशिया, बेटी-बेचवा, गबरघिचोरहा, गीति नाट्य को अभिनीत करने वाले लोक कवि भोजपुरी के शेक्सपीयर भिखारी ठाकुर का परिवार आज चीथड़ो में जी रहा हो।
देश ही नहीं विदेशों में भोजपुरी के क्षेत्र में ख्याति प्राप्त करने वाले मल्लिक जी के परिवार गरीबी का दंश झेल रहा है। यह सच है कि उनकी जयंति व पुण्यतिथि पर कुछ गणमान्य पहुंचते हैं, कार्यक्रम भी आयोजित होते हैं, लेकिन यह सब मात्र श्रद्धांजलि की औपचारिकता तक सिमट कर रह जाती है। न तो ऐसे किसी आयोजन में भिखरी ठाकुर के गांववासियों का दर्द सुना जाता है, न ही उनके दर्द की दवा के प्रबंध की बात होती है।
कुतुबपुर दियारा स्थित मल्लिक जी का खपरैल व छप्पर निर्मित जीर्ण-शीर्ण घर आज भी अपने जीर्णोद्धार की बाट जोह रहा है। यही से भिखारी ठाकुर ने काव्य सरिता प्रवाहित की थी और उनकी प्रसिद्धि की गूंज आज भी अंतरराष्ट्रीय मंच पर सुनाई पड़ रही है।
भिखारी ठाकुर के प्रपौत्र सुशील आज भी अदद चतुर्थ श्रेणी की नौकरी के लिए भटक रहा है, कोई सुधी तक नहीं लेने वाला। दर्द भरी जुबान से सुशील बतातें हैं कि अगर फुआ और फुफा नहीं रहते तो शायद मैं एमए तक पढ़ाई नहीं कर पाता। रोटी की लड़ाई में मेरी पढ़ाई नेपथ्य में चली गई रहती। समाहरणालय में चतुर्थ वर्गीय कर्मचारी की नौकरी के लिए वे आवेदन किये हैं। पैनल सूची में नाम भी है, लेकिन एक साल बीत गए, भगवान जाने नौकरी कब मिलेगी।
हाल यह है कि विभिन्न कार्यक्रमों में उन्हें एवं उनके परिजन को मंच तक नहीं बुलाया जाता है। जिस दीपक की लौ से समाज में व्याप्त कुरीतियों और सामयिक संमस्याओं को उजागर करने का महती प्रयास भिखारी ठाकुर ने किया उनकी लौ में आज कई लोग रोटियां सेंक रहे हैं, लेकिन दीपक तले अंधेरे की कहावत भी आज चरितार्थ है। दबी जुबान से दिल की बात बाहर आती है कि भिखारी ठाकुर के नाम पर कई लोग वृद्धा पेंशन एवं सुख सुविधा का लाभ उठा रहे हैं। परिवार को हरेक जरूरत की दरकार है। एक ओर जहां सुशील जीवकोपार्जन के लिए दर-दर भटक रहे हैं वहीं, उनकी पुत्रवधू व सुशील की मां गरीबी का दंश झेल रही है।
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भिखरी ठाकुर के इकलौते पुत्र शीलानाथ ठाकुर थे। भिखारी ठाकुर के नाट्य मंडली व उनके कार्यक्रमों से कोई रूची उनकी नहीं थी। उनके तीन पुत्र राजेन्द्र ठाकुर, हीरालाल ठाकुर व दीनदयाल ठाकुर भिखारी की कला को जिन्दा रखे हुए हैं। नाटक मंडली बनाकर जगह-जगह कार्यक्रम करने लगे। लेकिन इसी बीच उनके बाबू जी गुजर गये। फिर पेट की आग तले वह संस्कार दब गई। अब तो राजेन्द्र ठाकुर भी नहीं रहे। फिलवक्त भिखारी ठाकुर के परिवार में उनके प्रपौत्र सुशील ठाकुर, राकेश ठाकुर, मुन्ना ठाकुर एवं इनकी पत्नी रहती है। जीर्ण-शीर्ण हालात में किसी तरह सत्ता व सरकार को कोसते जिंदगी जिये जा रहे हैं।
उनके परिजन लोक साहित्य व संस्कृति के पुरोधा, भोजपुरी के शेक्सपीयर के गांव कुतुबपुर काश, स्थानीय सांसद व केन्द्रीय राज्य मंत्री रहे राजीव प्रताप रूढी के सांसद ग्राम योजना के तहत गोद में होता तो शायद पुरोधा के गांव को तारणहार की प्रतिक्षा नहीं होती। गंगा नदी नाव से उस पर छपरा से करीब 25 किलोमीटर दूर स्थित कुतुबपुर गांव आज भी अंधेरे तले है। कार्यक्रमों की रोशनी व राजनेताओं का आश्वासन उस गांव को रोशन नहीं कर सका। शायद श्रद्धांजलि सभा और सांस्कृतिक समारोह भी कुछ लोगों तक सीमटा हुआ है। सरकार तो दो फूल भी अर्पित कर नहीं पाती।
आस-पास दर्जनों गांव, हजारों की बस्ती, तीन पंचायतों में एक मात्र अपग्रेड हाईस्कूल। वह भी प्राथमिक विद्यालय से अपग्रेड हुआ है। प्रारंभिक शिक्षक और पढ़ाई हाईस्कूल तक। आगे की पढ़ाई के लिए नदी इस पर आना होता है। कुछ बच्चे तो आ जाते हैं, बच्चियां कहां जाये। कुतुबपुर से सटे कोट्वापट्टी रामपुर, रायपुरा, बिंदगोवा व बड़हरा महाजी अन्य पंचायतें हैं। लोगों की जीविका का मुख्य आधार कृषि है। अब नदी इनके खेतों को निगलने लगी है। 75 फीसद भूमिखंड में सरयू, गंगा नदी का राग है। टापू सदृश गांव है।
2010 से निर्माणाधीन छपरा आरा पुल से कुछ उम्मीद जगी है, लेकिन फिलहाल नाव से आने-जाने की व्यवस्था है। अस्पताल है ही नहीं। बाढ़ की तबाही अलग से झेलना पड़ता है। प्रत्येक साल किसानों को परवल की खेती में बाढ़ आने पर लाखों-करोड़ों रूपयों का घाटा सहना पड़ता है। सुविधा के नाम पर इस गांव में पक्की सड़क तक नहीं है। लोक कलाकार भिखारी ठाकुर जो नाई समाज में पैदा हुए थे, वे अपनी नाटकों, गीतों एवं अन्य कला माध्यमों से समाज के हाशिये पर रहने वाले आम लोगों की व्यथा कथा का वर्णन किया है। अपनी प्रसिद्ध रचना विदेशिया में जिस नारी की विरह वर्णन एवं सामाजिक प्रताड़ना का उन्होंने सजीव चित्रण किया है। वही नारी आज साहित्यकारों एवं समाज विज्ञानियों के लिए स्त्री-विमर्श के रूप में चिन्तन एवं अध्यन का केन्द्र-बिन्दु बनी हुई है।
भिखारी ठाकुर ने अपने नाटकों के माध्यम से सामाजिक कुरीतियों, विषमता, भेदभाव के खिलाफ संघर्ष किया। इस तरह उन्होंने देश के विशाल भेजपुरी क्षेत्र में नवजागरण का संदेश फैलाया। बेमेल-विवाह, नशापान, स्त्रियों का शोषण एवं दमन, संयुक्त परिवार के विघटन एवं गरीबी के खिलाफ वे जीवनपर्यन्त विभिन्न कला माध्यमों के द्वारा संघर्ष करते रहे। यही कारण है कि इस महान कलाकार की प्रासंगिकता आज भी बनी हुई है।
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कभी महापंडित राहुल सांकृत्यायन ने जिन्हें साहित्य का अनगढ़ हीरा एवं भोजपुरी का शेक्सपीयर कहा था उस भिखारी ठाकुर का जन्म सारण, छपरा जिले के सदर प्रखंड के कुतुबपुर दियारा में 18 दिसंबर 1887 को हुआ को हुआ था। उनके पिता का नाम दलश्रृंगार ठाकुर एवं माता का नाम शिवकली देवी था। भिखारी ठाकुर निरक्षर थे, परंतु उनकी साहित्य-साधना बेमिसाल थी। रोजी-रोटी कमाने के लिए वे पश्चिम बंगाल के मेदनीपुर नामक स्थान पर गये, जहां बंगाल के जातरा पाटियों के द्वारा किये जा रहे रामलीला के मंचन से वे काफी प्रभावित हुए, और उससे प्रेरणा पाकर उन्होंने नाच पार्टी का गठन किया।
लोक कलाकार भिखारी ठाकुर के समस्त साहित्य का संकलन अब तक पूरा नहीं हो सका है। बिहार राष्ट्रभाषा परिषद, पटना के पूर्व निदेशक प्रो. डॉ. वीरेन्द्र नारायण यादव के प्रयास से परिषद ने रचनाओं का एक संकलन भिखारी ठाकुर ग्रंथावली के नाम से प्रकाशित किया है, परंतु अभी भी उनके लिए बहुत कुछ किये जाना बाकी है। विभिन्न विश्वविद्यालयों में उनपर शोध-कार्य चल रहे हैं। कई पुस्तकें भी उनसे प्रकाशित हो चुकी है, लेकिन जो सम्मान उन्हें चाहिए वो मिलना अब भी बाकी है।