मुकेश महान
पटना। ऐन बिहार विधान सभा चुनाव से पहले लोजपा के संस्थापक रामविलास पासवान के निधन से, जहां लोजपा को करारा झटका मिला वहीं इसके बाद इस चुनाव में चिराग़ पासवान की अगुआई में करारी शिकस्त ने कई सवाल खड़े कर दिए। मसलन बिहार की राजनीति में लोजपा का भविष्य क्या होगा। लोजपा के बंगले को चिराग कितना रौशन कर पाएंगे। चिराग की राजनीतिक पारी कैसी होगी। क्या पिता रामविलास पासवान से मिली अपनी राजनीतिक विरासत को संजो कर उसे नई ऊंचाई दे पाएंगे या फिल्मी पारी की तरह चिराग पासवान की यह पारी भी फ्लाप ही साबित होगी।
राजनीतिक हलकों के साथ साथ यह सवाल लोजपा के अंदर खाने में भी दबी जुबान से उठने लगा है। बिहार के छोटे से गांव ख़गड़िया के शहरबन्नी से उठ कर और दारोगा की परीक्षा पास करने के बाद भी नौकरी छोड़कर राजनीति में आए पिता रामविलास पासवान ने राजनीति में लंबी पारी तो खेली है। रोज नई नई ऊंचाइयां भी तय करते रहे। पहले दलित सेना जैसा सशक्त संगठन और लोजपा जैसी समृद्ध राजनैतिक पार्टियां बना कर देश की राजनिति में दशकों तक धूरी बने रहे। ऐसे में उनके ही सुपुत्र चिराग पासवान ने जब लोजपा की कमान संभाली तो उनसे उम्मीद बनना स्वाभाविक था।
सवालों की यह सुगबुगाहट तब और तेज हो गई जब पिता रामविलास पासवान के निधन के बाद उन्हें पहला राजनीतिक मैच अपने ही गृह राज्य के क्षेत्रीय ग्राउंड में खेलना पड़ा और उसमें बतौर कप्तान वो बुरी तरह फ्लाप रहे। हद ये कि कभी सत्ता की चाबी लेकर घुमने वाली लोजपा चिराग पासवान की कप्तानी में महक 1 विधायक पर ही आउट हो गई। पिता के अभाव में पहला बिहार विधान सभा चुनाव में लोजपा का प्रदर्शन घोर निराशाजनक रहा। जद यू के विरोध में लड़ने का उनका पार्टी के लिए आत्मघाती निर्णय न तो पार्टी के वरिष्ठ नेताओं की समझ में आया और न ही आम जनता की समझ में।
दरअसल ये वो पल था जब चिराग़ पासवान को सहानुभूति मिल सकती थी और इसके बूते उनकी जीती हुई सीटों की संख्या बढ़ सकती थी, लेकिन परिणाम इसके विपरीत आए। हालांकि ये चौंकाने वाले नहीं थे। जदयू के ख़िलाफ़ हर जगह लड़ने का इनके निर्णय से तो पहले ही पार्टी को फ़ज़ीहत की आशंका बन गई थी। लेकिन ऐसी फ़ज़ीहत के बारे में कोई कल्पना भी नहीं कर सकता था। खुद वो अपने संसदीय क्षेत्र से भी एक भी विधायक नहीं जीता सके। लगभग उनके हर सांसदों के साथ भी ये ही हुआ। बिहार में भाजपा के साथ हूँ, एंडीए के साथ हूँ, लेकिन जदयू के ख़िलाफ़ लड़ूँगा वाला उनका निर्णय उन्हें परिपक्व नेता की छवि से परे ले गया। इस निर्णय ने न तो उन्हें एंडीए का भरोसेमंद रहने दिया न ही भाजपा का। जदयू से तो वो सीधे सीधे लड़ ही रहे थे, जबकि ये चुनाव सीधे सीधे एंडीए बनाम यूपीए का था। जनता के मिज़ाज और नब्ज को पकड़ने में वो पूरी तरह नाकामयाब रहे। इससे पार्टी में भी उनकी छवि को नुक़सान हुआ है।
[राजनीतिक पार्टियों को हार और जीत तो मिलती रहती है। लेकिन चिराग़ पासवान और लोजपा की ये हार उनकी नीतियों की हार थी। ऐसे में लोजपा के भविष्य को लेकर राजनीतिक हलकों में चिंता स्वाभाविक है। और उम्मीद को जाती है कि चिराग़ कोई अपने चमत्कारिक निर्णय से अपनी और पार्टी को छवि को मजबूती देंगे।
अगर ऐसा नहीं होता है, तो फ़िल्मी पारी को तरह चिराग़ पर एक और असफल पारी का तमग़ा लग सकता है। जबकि उन्हें अपने पिता रामविलास पासवान के राजनीतिक जीवन से प्रेरणा और सीख लेने की ज़रूरत है। जनता को नब्ज और राजनीति का रुख़ पहचानने में वो सिद्धहस्त थे। विपरीत परिस्थितियों में भी केंद्र में मंत्री का एक पद तो उनके लिए सुरक्षित होता ही था। सोसलिस्ट पार्टी से राजनीतिक करियर शुरू कर लोकदल और जनता पार्टी होते हुए अंतिम 20 सालों में यूपीए और एंडीए तक पहुँचे, जहां उनका सशक्त दख़ल भी रहा। लगभग 20 साल तक केंद्र में सशक्त मंत्री भी रहे। अपनी राजनीति को शक्ति मुहैया कराने के लिए उन्होंने एक मजबूत संगठन दलित सेना का गठन भी किया था, जो आज भी बिहार की राजनीति में अपनी मजबूत पहचान के साथ उपस्थित है। लोजपा जैसी पार्टी का गठन भी उन्होंने किया था, जिसकी उपस्थिति उनके जीते जी किसी न किसी रूप में केंद्र में बनी रही।
अब चिराग़ पासवान को जब इतनी समृद्ध राजनीतिक विरासत मिली है तो उनसे उतनी ही बड़ी उम्मीद तो बनती ही है। अब देखना दिलचस्प होगा कि चिराग़ पार्टी और जनता को उम्मीद पर किस हद तक खड़े उतरते हैं।