हमारे संस्कार और अनुवांशिकी पर विस्तार से ज्योतिष चर्चा। हम देख रहे हैं कि बच्चों के शादी की उम्र बढ़ रही है और बच्चियों में रजोनिवृति (menopause) की उम्र घटती जा रही है। परिणाम- बांझपन (infertility) की समस्या में वृद्धि। और अगर कारण देखा जाए तो साफ है कि हमारी जीवनशैली से हम अपने ही शास्त्र को दूर करते जा रहे हैं। …और दुष्परिणाम में बांझपन को पा रहे हैं।
इतना ही नहीं, चिकित्सा विज्ञान कहता है कि वर्तमान में पैदा लेने वाले बच्चों में विकृतियां बढ़ती जा रही हैं। शोध बताते है कि आजकल बच्चे बहुत सारी विकृतियों के साथ ही पैदा हो रहे हैं। जबकि मेडिकल साइंस लगातार तरक्की का दावा कर रहा है।आनुवंशिक विज्ञान (Genetic science) के डॉक्टरों के अनुसार युवा पीढ़ी की प्रजनन क्षमता (fertility count) खतरनाक रूप से नीचे गिर रही है। परिणाम शारीरिक और मानसिक रूप से दुर्बल संतान का होना है।शारीरिक रूप से दुर्बल संतान मतलब कम Stamina- श्रम नहीं कर सकने वाला और जल्दी थक जाने वाला संतान। ऐसे बच्चे को इन्फेक्शन भी बहुत जल्दी लगने का डर होता है। और अगर बीमार हो जाते हैं तो वे जल्द ठीक नहीं होते।
मानसिक रूप से दुर्बल संतान मतलब-तनाव,निराशा, अवसाद और आत्मघाती प्रवृत्ति का शिकार होना। किसी समस्या के समाधान के लिए या उससे लड़ने के लिए जो मानसिक बल चाहिए वह आजकल के बच्चों में जन्म से ही नहीं होता। नतीजतन आत्महत्या के बढ़ते आंकड़े हमारे सामने हैं।विज्ञान भी मानता है कि जो जन्म से ही शारीरिक और मानसिक रूप से दुर्बल होता है उसे दुनिया का कोई डॉक्टर ठीक नहीं कर सकता है। ये चिंता का विषय होना ही चाहिए कि समर्थ संतान कैसे जन्म लेगी जब उनको जन्म देनेवाली युवा पीढ़ी ही समर्थ नहीं हैं।लेकिन दुखद है कि इसपर किसी का ध्यान नहीं जाता। न तो जन्मदेने वाले दंपती का, न ही डाक्टर या विज्ञान का और न ही शास्त्र और शास्त्र के ज्ञाताओं का।
अब जरा ज्योतिष शास्त्र के अनुसार भी इन विषयों को समझने की कोशिश करते हैं।समझने की कोशिश करेंगे कि हमारे संस्कार और अनुवांशिकी में संबंध कैसे हैं। हमारे शास्त्र में जन्म से लेकर मृत्यु तक सोलह संस्कारों की बात की गयी है।
ब्रह्मक्षत्रियविट्शूद्रा वर्णास्त्वाद्यास्त्रयो द्विजाः। निषेकाद्याः श्मशानान्तास्तेषां वै मन्त्रतः क्रियाः।।
संस्कार क्या है- “सम्यक करोति इति संस्कारः”
‘संस्कार’ शब्द् का अर्थ है-संस्करण, परिष्करण आदि। जिस प्रकार किसी मलिन वस्तु को धो-पोंछकर, आग में तपाकर उसके मलों को दूर कर उसे शुद्ध और पवित्र बनाया जाता है,ठीक उसी प्रकार से संस्कारों द्वारा जीव के जन्म-जन्मान्तरों से संचित मलरूप निकृष्ट कर्म-संस्कारों को भी दूर कर, परिष्कृत कर, उसे स्वस्थ गुणों का संवाहक बनाया जाता है| यही कारण है कि हमारे सनातन धर्म में बालक के गर्भ में आने का समय भी विधि अनुरूप निर्धारित किया जाता रहा है।
जो क्रम में नहीं है उसे क्रम में संजोना और जो अव्यवस्था है उसे दुरुस्त करना और उसके द्वारा कुसंस्कारों को सुसंस्कारों में परिवर्तित करना मतलब अनुवांशिकी गुण में परिवर्तन लाना ताकि गर्भ में या जन्म के साथ किसी भी प्रकार की विकृति को जगह न मिले।
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इसको एक उदहारण से समझा जा सकता है।कफ कारक दही का जब मंथन कर दिया जाता है,(संस्कार परिवर्तित कर दिया जाता है) तो वह छाछ बनकर त्रिदोष हरने वाली हो जाती है। लेकिन यहां यह भी समझने वाली बात है कि कैसा छाछ? लकड़ी की मथनी से बनाया हुआ छाछ ही त्रिदोष हरने वाला हो सकता है। मिक्सी के जार में घुमाकर बनाया गया छाछ नहीं।
लकड़ी के मथनी से जब clockwise और anti clockwise दही को घुमाकर छाछ तैयार किया जाता है तब वह सर्व गुण संपन्न हो जाता है। परन्तु जब मिक्सी के जार में एक ही दिशा में घूमती है वह दही तो उससे बने हुए छाछ में कुछ विटामिन के क्षय हो जाते है। बना तो दोनों में छाछ ही, लेकिन एक में उसके अपने सारे गुण रह ही गए वह परिष्कृत होकर त्रिदोष हरने वाला हो गया जबकि दूसरे में कई गुणों के नाश हो गया।
ठीक इसी प्रकार जब हमारे इस जीवन की शुरुआत हो रही होती है उस समय अगर हम कुछ बातों का ध्यान रख लें तो अच्छे गुणों के साथ हमारी संतति इस संसार में प्रवेश पा सकेगी। जन्म से लेकर मृत्यु तक सोलह संस्कार हैं जिसमें गर्भाधान संस्कार पहला ही संस्कार है।गर्भाधान संस्कार क्यों?, इसको इतना महत्व क्यों ? ज्योतिषशास्त्र बहुस्तरीय है। इसकी परतों को हटाए बिना इसको समझना मुश्किल ही नहीं असंभव भी है।
हमारे जीवन की जब शुरुआत होती है तब अपने पूर्व जन्म के संस्कारों के साथ हम इस जीवन में प्रवेश करते हैं। इसमें माध्यम बनते हैं हमारे माता और पिता और हमारे माता, पिता के संस्कार भी इसमें जुड़ते हैं। पिता के चौदह कुल और माता के पांच कुलों का संस्कार जुड़ता है गर्भधारण करने बच्चों से। 14 को 5 से गुणा करने पर मिला 70, अर्थात 70 कुलों के संस्कार। और स्वयं के पूर्व जन्म का संस्कार इसमें जोड़ेंगे तो बनता है- 70 + 1 = 71
70 कुलों के गुण और स्वयं के प्रारब्ध मिलकर 71, जिसे आनुवंशिक विज्ञान अनुवांशिकी गुण कहता है। ज्योतिष उसे संस्कार कहता है। इतने सारे कुल और स्वयं के प्रारब्ध लेकर एक जीव इस संसार में प्रवेश लेने की प्रक्रिया में होता है। इस प्रक्रिया में किसी गर्भधारण करने वाला जीव या गर्भधारित कर चुके जीव के साथ किसी प्रकार की विकृतियों के प्रवेश न हो, जीवन की शुरुआत विकृतियों के साथ न हो, इसके लिए ही ज्योतिष गर्भाधान संस्कार की बात करता है। इसलिये हमारे सनातन धर्म में बालकों का जन्म के पूर्व ही संस्कार कराने का विधान है।
बहुत सारे लोग कहते हैं की वे इन सभी चीजों को नहीं मानते, लेकिन उनके मानने या न मानने से तो चीजें नहीं होती न, चीजें तो फिर भी होती हैं और निरंतर होती ही रहती हैं। हमें सिर्फ पशुओं की तरह संतान पैदा नहीं करना है। हमारी शास्त्रीय परिकल्पना तो ऐसे संतान जन्म की है, जहाँ संतान अपने पिता का सवाया होना चाहिए।
शास्त्र के अनुसार-
निषेकाद् बैजिकं चैनो गार्भिकं चापमृज्यते। क्षेत्रसंस्कारसिद्धिश्च गर्भाधानफलं स्मृतम्।।[2]
मतलब विधिपूर्वक संस्कार से युक्त गर्भाधान से अच्छी और सुयोग्य संतान उत्पन्न होती है।गर्भाधान के समय माता-पिता की मनः स्थिति बच्चे का चरित्र निर्माण करने में अहम् भूमिका निभाते हैं। महाभारत में धृतराष्ट्र, पांडू और विदुर की माताओं की गर्भधारण करने के समय की मनःस्थिति उदाहरण और अध्य्यन के लिहाज से देखा जा सकता है। इसी तरह ग्रह-नक्षत्रों की एक खास कोणीय स्थिति भी गुणी और विद्वान संतान के जन्म में महत्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं।
साफ है कि संस्कार से उत्तम संतान की प्राप्ति होती है। स्वस्थ संतान के निर्माण के विज्ञान और शास्त्र से स्वयं भी परिचित हों और विश्व को भी इससे परिचित करवाएं। तभी हमारी अगली पीढ़ी शारीरिक रूप से स्वस्थ और मानसिक रूप से मजबूत होगी। ऐसा करके ही स्वस्थ संतान, स्वस्थ परिवार, स्वस्थ समाज और एक स्वस्थ राष्ट्र के निर्माण में अपनी महती भूमिका निभा पाएंगे।