शिवपुराण के अनुसार अति क्रोध के संवाहक ऋषि दुर्वाषा भी भगवान शिव के ही अवतार हैं। माना जाता है कि महादेव के आठवें अवतार थे ऋषि दुर्वाषा। अति क्रोध और बात बात में शाप देने के लिए जाने जाते हैं महर्षि दुर्वाषा। कथा के अनुसार निःसंतान महर्षि अत्री और माता अनसुइया संतान प्राप्ति के लिए जब ब्रह्माजी से परामर्श माँगा तब ब्रह्माजी ने उन्होंने त्रिदेव की तपस्या करने की सलाह दी। तब दोनों ऋक्षकुल पर्वत पर त्रिदेव की तपस्या करने लगे। वर्षों की तपस्या के बाद तीनो देव ने इनकी तपस्या से खुश होकर दर्शन दिया और संतान रूप में स्वंय को अवतरित होने का वरदान भी दिया। इसी वरदान के फलस्वरूप भगवान शिव ने दुर्वाषा के रूप में अत्री ऋषि के यहां जन्म लिया।
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निर्माण, संचालन व विध्वंस के क्षेत्राधिकारी के रूप में महादेव को रेखांकित किया जाता रहा है। यही नहीं, करूणा, कल्याणकारी, कृपालु भी महादेव ही हैं। औघड़, अविरल, अविनाशी के साथ इन्हें आशुतोष तथा प्रलयंकर भी कहा जाता है, लेकिन भोलेनाथ को अनाथों के नाथ महाकाल तथा देवाधिदेव महादेव तो सभी मानते हैं।
तांडव के नादस्वर को सप्तस्वर बना कर नटराज की याद क्षितिज व व्योम में अनहद नाद को स्थापित करने की कला शिव की खूबी है तो वहीं लंकेश रावण के आराध्य देव बने रहना भी शिव की विशेषता रही है। दुर्वाषा ऋषि की परिकल्पना भी शिवात्मनां के समकक्ष ही है। या यूं कहें कि शिवांगी ही हुए मुनि दुर्वाषा।
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वर्णित तथ्यों के अनुसार एकबार तपी दुर्वाषा ने अंबरीष जी की अहम परीक्षा का मन बनाया। कथा के संदर्भ में कहा जाता है कि एक समय एकादशी व्रत निमित्त दुर्वाषा ऋषि आमंत्रित किए गए और वे स्नान करने हेतु अंबरीष को कह कर गये लेकिन लौटने में ऋषि को देर होते देख अंबरीष जी व्याकुल क्षुधा हो कर, भोजन करने बैठे ही थे कि ऋषि का आगमन हो गया। इच्छा के वशीभूत होकर अतिथि के भोजन की प्रतीक्षा किये बिना खुद को भोजन के कार्य में लिप्त होते देख कर ऋषि दुर्वाषा क्रोधित हो कर अंंबरीष की धृष्टता के लिए दंड देने पर तुल गये।
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राजा अंबरीष कांप गये। तत्काल राजा की रक्षा में सुदर्शन चक्र आ गया, लेकिन जैसे ही दुर्वाषा को सुदर्शन चक्र ने देखा, तत्काल शांत हो गया। आकाशवाणी के साथ शिवावतार दुर्वाषा की भेद खुल गई। सुदर्शन चक्र ने शिव को देख,ग्लानि का अनुभव किया। यह सब देख राजा अंबरीष धन्य हो उठे व महादेव की कृपा के लिए आभार व्यक्त किया तथा भोजन कराया।
दुर्वाषा रूपी शिवधारी ने एक समय शेषावतार लक्ष्मण, श्री कृष्ण, द्रौपदी समेत कई अवसर पर अनेकों बार विभिन्न रूपों में परीक्षाओं का सहारा लिया है। ऋषि दुर्वाषा के कारण ही लक्षमन को राम ने मृत्यु दंड दिया था। शिव के इस रुप की पूजा करने का आनंद ही अलग है।
शंभुदेव झा (लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं।)