विष्णुपद मंदिर बिहार के मगध प्रक्षेत्र के गया में अवस्थित है। कहा जाता है कि कभी भगवान विष्णु यहां पधारे थे और उनका पदचिह्न आज भी यहां सुरक्षित है। कहा जाता है कि मोक्ष, ज्ञान, भगवान विष्णु, गयासुर, फल्गु, हिन्दुओं और बौद्धों की भूमि है गया। अनगिनत मिथकों और कहानियों को अपने आप में समेटे है यह शहर। गया की पहचान विश्वस्तर पर आज मुख्यतः हिन्दू और बौद्ध अनुयायियों के लिए हैं।
गया प्राचीन काल से अपनी धार्मिक और सांस्कृतिक महत्ता के लिए पुरी दुनिया में आकर्षण का केन्द्र रहा है। फल्गु नदी तट पर अवस्थित गया विश्व के प्राचीन शहरों में शुमार है। ऐसी मान्यता है कि इस शहर को अस्तित्व में लाने का श्रेय सृष्टि के निर्माता ब्रह्माजी को ही है।
गया ऐतिहासिक शहर तो है ही। यहां कई कई धार्मिक स्थल भी हैं। यहां का विष्णुपद मंदिर भी प्राचीन और लोकप्रिय स्थलों में से एक है। वैष्णवों का यह मंदिर प्रमुख तीर्थस्थल है। यह मंदिर 30 मीटर ऊंचा है और आठ खम्भे पर चांदी की परत चढ़ी है। मंदिर के गर्भगृह में भगवान विष्णु के 40 सेंटीमीटर लम्बे पांव के निशान मौजूद है। इसके उपर चांदी का अष्टफलक हैं। इस मंदिर का मंडप 50 वर्गफुट चौड़ा है और मंदिर में प्रवेश के लिए दो द्वार है।
विष्णुपद मंदिर में भगवान विष्णु का चरण चिह्न विराजमान है। कहा जाता है कि एक असुर गयासुर को स्थिर करने के लिए धर्मपुरी से माता धर्मवत्ता शिला को लाया गया था, जिसे गयासुर पर रख भगवान विष्णु ने अपने पैरों से दबाया था। तभी इस शिला पर भगवान के पद चिह्न उभर गए थे। जो आज भी दर्शनीय है।यहां यह जानना भी जरूरी है कि इसी राक्षस गयासुर के नाम पर इस जगह का गया पड़ा है। माना जाता है कि यह एक अकेला स्थान है जहां,भगवान विष्णु के चरणों का साक्षात दर्शन होता है। हर वर्ष पितृपक्ष पर यहां भीड़ जुटती है। इसे धर्मशिला के नाम से भी जाना जाता है। मान्यता है कि पितरों के तर्पण के पश्चात इस मंदिर में भगवान विष्णु के चरणों के दर्शन करने से समस्त दुखों का नाश होता है एवं पूर्वज पुण्यलोक को प्राप्त करते हैं। इन पदचिह्नों का श्रृंगार रक्त चंदन से किया जाता है है।
पिंडदान और पूर्वजों की मुक्ति के लिए फल्गु नदी तथा विष्णुपद मंदिर को सर्वश्रेष्ठ माना गया है। मंदिर भूरे चट्टानी पत्थरों से निर्मित है, जो पत्थरकट्टी नामक स्थान से लागया गया था। मंदिर में भगवान विष्णु का पाद उत्तरामुखी है। मंदिर का मुख्य द्वार पूर्वाभिमुख है। समीप ही पूर्व की तरफ एक स्तम्भ पत्थर के उपर बना हुआ है, जिसे सोलह वेदी की संज्ञा दी गयी है। इसी स्तम्भों के नीचे पिंडदान किया जाता है।
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वर्तमान में विष्णुपद मंदिर अपनी स्थापत्य कला की छटा बिखेरता है और पर्यटकों और श्रद्धालुओं को आत्मविस्मृत करता है। इसकी अलौकिक आभा देखते ही बनती है। इस मंदिर के निर्माण शैली अत्यन्त ही सुन्दर, बेजोड़ एवं प्रशंसनीय है। यहाँ भगवान विष्णु के ‘‘चरण चिन्ह’’ की सांध्य बेला में श्रृंगार होता है जिसके संबंध में कहा जाता है कि श्रृंगार देखने मात्र से ही जीवन धन्य हो जाता है।
इस मंदिर के निर्माण के संबंध में बताया जाता है कि गुप्तकाल में सपाट छत का शिखरहीन मंदिर बनाया गया था, जिसके ध्वस्त हो जाने के बाद महीपाल के पुत्र न्यापाल ने पुरोहितों के अनुग्रह पर 11वीं शताब्दी में इसे पुनः बनवाया था, फिर 16वीं शताब्दी में राजपूत राजाओं ने इसे सुंदर पत्थरों को चुने से जोड़कर बनवाया था और अंत में महारानी अहिल्याबाई ने 1760 से 1769 के बीच मंदिर का पुनरूद्धार कराया था।
मंदिर के पूर्वी दरबाजे के बाहर छत से बूंद-बूंद कर पानी टपकता रहता है। मंदिर के शीर्ष भाग पर स्वर्णध्वज कलश है, जिसे दूर से ही देखा जा सकता है। मंदिर में दक्षिण दिशा में माँ लक्ष्मी और पश्चिम दिशा में भगवान विष्णु की मूर्ति स्थापित है। मुख्य मंदिर के पूर्व में कई स्तम्भों पर मंडप बनाए गए है, जिसमें विशाल घंटा टंगा हुआ है। हिन्दू धर्मावलम्बियों के लिए यह मंदिर पुण्य स्थल हैं जहां, प्रति दिन सैकड़ों –हजारों की संख्या में लोग आते हैं और दर्शन लाभ करते हैं।