Ramnavmi पर्व आने वाला है, इसी संदर्भ में विशेष आलेख।
विद्वानों का मत है कि “राम वन गये, तो बन गए”। इन पंक्तियों में मानवीय संवेदना, भाव और तड़प का मिश्रण है तो वहीं विश्लेषण के महात्म्य से आराध्य को अपने ही हिसाब से रेखांकित करने का एक प्रयास भरा प्रयोग भी।
वनगमन की वचनबद्धता को पूरा कर जब तपस्वी राम अपने अनुज लक्ष्मण और भार्या सीता के साथ अयोध्या आते ही, महात्माओं की तरह रह रहे भाई भरत से मिलते हैं, तो सहृदयता की त्रिवेणी आंखों से परिलक्षित हो जाती है।
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लंका पर जीत की प्रसन्नता के साथ संभवतः भरत जी को माता कैकेयी की टीस भरी बातों ने पीछा नहीं छोड़ा था। उन्होंने श्री राम से कैकेयी को न्यायोचित दंड देन की अपील की जिसे रघुवर ने कुशल मंगल पूछ टाल दिया।
कहते हैं राम से बड़ा राम का नाम को चरितार्थ कर भक्त वत्सल राम ने भरत से कहा कि जिस माता से उसके चार पुत्र विलग हो गये हों, जो पति का संताप झेल रही हो, राजकाज थम सा गया हो, संतति वन गमन कर गया हो और अपराधबोध से ग्रसित जीवन जी रही हों भला वह और कितने समय तक प्रायश्चित की अग्नि में जलती रहे।
समस्त वैभव को भव ने अपने तरीके से निवटाया है। भला ऐसी स्थिति में कोई पुत्र मां के आंसू ना पोछे तो और क्या करे? राम ने तो केवल मां की आज्ञा और पिता के वचन का पालन किया है। रही बात अनुज भरत और शत्रुघ्न की, तो पूरा ब्रह्मांड में तुम दोनों का भ्रातृभाव लोगों के लिए लक्ष्मण रेखा बना रहेगा। माताएं स्नेह की प्रतिमूर्ति बनी रहेंगी।तात्पर्य है कि आज के समय में जब समाज में विखंडन की गर्म हवा सभी महसूस कर रहे हैं तो भगवान श्री राम का अनुसरण ही दैहिक, दैविक भौतिक ताप से त्राण दिला सकता है।