Culture को मानव निर्मित माना गया है और समाज के विभिन्न प्रभागों द्वारा इसे संपोषित किया जाता रहा है तभी तो सभ्यता के उद्विकास के साथ, मानव विकास में आशातीत सफलता प्राप्त कर आज समेकित संस्कृति का अंग सभी जीव-जंतु व प्राणी मात्र ही नहीं कहलाता अपितु Sanatan culture में पेड़-पौधे, पहाड़, नदी, ताल-तलैया, कुआं तथा अन्य सभी वस्तुएं जिन्हें मानव प्रयोग किया करते हैं, सभी को अटूट सांस्कृतिक सूत्र में समय,काल व परिवेश में शामिल किया गया।
अनादि काल से लेकर नव चेतना काल तक भले ही स्वरूप में आंशिक परिवर्तन किया गया हो लेकिन यह निर्विवाद सत्य है कि आस्थावान, समर्थवान और समर्पित जनसमुदाय ने अपनी-अपनी सुविधानुसार ही सही लेकिन खुद को संस्कृति से जोड़े रखा है।
बात करें सनातनी महिला समूहों की तो व्यवहार गीतों के माध्यम से ही सही,आज प्रकृति प्रदत्त सभी उपादान के प्रति नारी संवर्ग अधिक आस्थावान हैं। यही वजह है कि मुंडन, उपनयन और विवाह संस्कार में बांस, आम, कलश,पुष्प गुच्छ, केला थम्ब, मूंज,पीपल के साथ वटवृक्ष के प्रति भारतीत नारी का अनुराग अद्वितीय रहा है।वटसावित्री पूजन में विवाहित ललनाओं का प्रकृति आग्रह ही तो है कि चिलचिलाती गर्मी को नकार कर,अपने पति की आयु, समृद्धि, सुख और वैभव की कामना के साथ वनस्पति की पूजा अर्चना कर खुद का सौख्य पूरा करती रही हैं।
लोक आस्था, रीति रिवाज, चलन की बातें पीढ़ियों को हस्तांतरित होती रही हैं इसलिए सनातनी व्यवस्था में तुलसी के पौधों को भी देवत्व का दर्जा पाप्त है।
अधिकांश पेड़-पौधों, लत्तर, शिखा, पुष्प गुच्छ,अमलतास,आम्रपत्ते, वनौषधियों के साथ पूजित किये जाते हैं।कहते हैं कि यदि अपराजिता का लत्तर सविधि बाजू पर धारण किया जाय तो वह रक्षा कवच बन जाता है।भारत में तो प्रकृति को समर्पित कई ऐसे पर्व हैं, जिनकी मान्यता कभी भी कम नहीं हो सकती।इसी चैत्र माह के शुक्ल पक्ष पर गौर करें तो सनातनी संस्कृति का साक्षात्कार हो सकेगा।
चैत्र नवरात्र, सूर्योपासना, राम नवमी,जूड़ि-शीतल,सतुआन तथा स्थानीय स्तर पर आयोजित अन्य संस्कृति के निहितार्थ पर्व और अनुष्ठान मनाने की प्रथा है।सभी से महिलाओं का अभिन्न सरोकार
है।यदि चार दिवसीय चैती छठ अनुष्ठान की बात की जाय तो इसे हठयोग की संज्ञा दी जा सकती है, क्योंकि एक तो तप्त व दग्ध धरती उपर से निष्ठा की पराकाष्ठा-नारी समाज खुद को तपा कर परिवार के सुख समृद्धि और वैभव के लिए समर्पित रहती हैं।न्यौछावर वर्ग में महिलाओं की भूमिका आज भी रेखांकित है। कहा जाता है कि भारत की आत्मा गांव में ही निवासित है। इसका प्रभाव यह है कि परंपरागत नेम,नियम व निष्ठा के क्षेत्र में भारतीय महिला संवर्ग अव्वल और अद्वितीय हैं।आनंदमय जीवन को जीते हुये मोक्ष की कामना करना शायद इस जीवन में एक कठिन तप के समान है लेकिन मां भारती की संततियों ने,अपने कृत्य से यह सच कर दिखाया है कि वर्तमान में जी कर किस प्रकार भविष्य को सुरक्षित किया जा सकता है।
असतो मा सद्गमय,तमसो मां ज्योतिर्गमय,मृत्योर्मा अमृतं गमय के मूल सिद्धांतों को अक्षरसः पालन करते हुए सभी भारतीय नारी सर्वश्रेष्ठ होती जा रही हैं। तात्पर्य यह है कि गृहस्थ जीवन में रहते हुए भी सनातन संस्कृति के अनुरूप भारतीय नारी यह बखूबी जानती हैं कि सुहागवती धर्म में वनस्पति का स्थान सर्वश्रेष्ठ है और यही कारण है कि प्रकृति हमारे देश की परंपराओं में सन्निहित है। सभी देवी-देवताओं तथा पितरों के स्नेह में शुमार प्राकृतिक संसाधनों से हमारा पुराना सरोकार है और रहेगा.