पटना, संवाददाता। नूर फातिमा सम्मान समारोह के अवसर पर नाट्य संस्था प्रयास द्वारा पटना के कालिदास रंगालय में क्रांतिकारी नाटक सात दीवाने 11 अगस्त 1942 का मंचन किया गया। इस नाटक के लेखक और निर्देशक थे पटना के चर्चित लेखक निर्देशक मिथिलेश सिंह।
इस नाटक में आजादी की दीवानगी को बारिक और मार्मिक तरीके से दिखाया गया है। कैसे आजादी की दीवानगी ने अगस्त क्रांति को जन्म दिया था। इसी दीवानगी में 11 अगस्त 1942 को 7 नौजवान छात्रों ने पटना के सचिवालय पर तिरंगा झंडा फहराने के प्रयास में अपनी शहादत दी थी। इन शहीदों की स्मृति में ही पटना में शहीद स्मारक बनाया गया है, जो सतमूर्ति के नाम से भी जाना जाता है।
एक सच्ची क्रांतिकारी घटना पर आधारित है यह नाटक। 11 अगस्त 1942 की सुबह पटना के सचिवालय पर हर हाल में तिरंगा झंडा फहराने के मकसद से हजारों की भीड़ बढ़ रही थी। इनमे सात छात्रों का एक गुट भी था। इस पर क्रोधित तत्कालीन पटना जिलाधिकारी डब्लू आर्चर ने गोली चलाने का आदेश दिया था। सात छात्रों को गोली लगी थी। सैकड़ों घायल हुए थे। छात्र एक-एक कर गोली खाते गये। वंदे मातरम, भारत माता की जय बोलते गये। मगर अपने हाथों से तिरंगा को गिरने नहीं दिया। गोलियों की बौछारों के बीच एक नौजवान छात्र रामकिसुन सिंह तिरंगा झंडा फहराने में कामयाब हुआ था। जिन्हें बाद में गिरफ्तार कर लिया गया था। इसी घटना को नाटक “सात दीवाने में दिखाने की सफल कोशिश की गई।
लेखक- निर्देशक मिथिलेश सिंह कहते हैं कि काफी शौध और अध्ययन के बाद नाट्य आलेख को तैयार किया गया। शोध कार्य में पत्रकार अरुण सिंह, उदघोषक वरिष्ठ रंगकर्मी अशोक प्रियदशी का बड़ा योगदान है। मिथिलेश बड़ी ही सहजता से स्वीकारते हैं कि नाटक के कथनाक में सत्य के ऊपर कल्पनाओं की चादर ओढाई गई है। ताकि नाटक में ऐतिहासिकता के साथ-साथ रोचकता भी हो। पात्र की उपस्थिति से स्थान का बोध कराने के प्रयास में गोपाल सिंह नेपाली, बिस्मिल्लाह अजीमाबाद, विक्रम चंद्र चट्टोपाध्याय, जगदंबा प्रसाद मिश्र ‘हितेशी’, बृज बिहारी मिश्र और पारंपरिक होली गीत को भी नाटक में समाविष्ट किया गया है। नाटक के कथानक को शाहिद राम गोविंद सिंह की विधवा आशा कुँअर अपने स्मृतियो में बयां करती है। जो वर्तमान में अतीत से गुजरती हैं।
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मंच पर कलाकार के रूप में राम गोविंद सिंपक आनंद, उमाकांत प्रसाद-गोविंद कुमार, सतीश प्रसाद झा- सत्यम शिवम, जगपति कुमार- आदित्य पांडे, देव चौधरी- सौरव कुमार सिंह, राजेंद्र सिंह,-विनोद कुमार, रामानंद सिंह-आशीष कुमार विद्यार्थी, रामकिशन सिंह-कुमुद रंजन कुमार, आशा कुंवर (विधवा) – रजनी शरण आशा कंवर (युवा)/ लड़की- ममता सिंह, डब्लू जी आर्चर – विक्रांत कुमार, सिपाही- रामेश्वर कुमार, – विजय महतो और क्रांतिकारी- अक्षय कुमार ने अपने अभिनय से 1942 के 11 अगस्त को कुछ समय के लिए पुनर्जीवित कर दिया। एक बारगी अंग्रोजों की बर्बरता ताजा कर दी।
निर्देशक मिथिलेश सिंह का परिपक्व निर्देशन पूरी तरह मंच पर दिख रहा था। कुछ दृश्यबंध दर्शकों के रौंगटे खड़े कर दे रहे थे तो कुछ उद्वेलित करने के लिए काफी थे।
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मंचसे परे बृज बिहारी मिश्र संगीत दृश्यानुकूल थे जो नाटक को गति प्रदान करने में सहायक हो रहे थे। नाल पर भोलानाथ शर्मा और इफेक्ट्स के सहारे सत्य नारायण कुमार सहयोग कर रहे थे। प्रकाश संरचना राहुल रवि की थी। सह निर्देशन और साउंड नियंत्रण रवि भूषण बबलू का और रूप सज्जा उदय कुमार शंकर की थी। नृत्य निर्देशक थे जितेंद्र चौरसिया तो वस्त्र विन्यास किया था गुड़िया कुमारी और बीना गुप्ता ने। रूपा सिंह 3की वेशभूषा और सुनिल वर्मा का मंच निर्माण भी प्रभावित कर गया।