कैसे बचेगा हरिहर क्षेत्र का अर्थशास्त्र । सोनपुर,विश्वनाथ सिंह। इस बार सोनपुर का विश्वप्रसिद्ध हरिहर क्षेत्र मेला लगाने की अनुमति अभी तक सरकार ने नहीं दी है। हजारों वर्षों से इस मेले का पौराणिक, धार्मिक एवं सांस्कृतिक महत्व बिहार सरकार की उदासीनता के कारण समाप्ति के कगार पर है। खास बात यह है कि मेला नहीं लग पाने से क्षेत्र का अर्थशास्त्र तो बिगड़ता ही है। अप्रत्यक्ष रूप से पूरे देश और कुछ हद तक कुछ दूसरे देश का अर्थशास्त्र भी प्रभावित होता है।यह मेला बेरोजगारों को रोजगार के नए-नएअवसर
प्रदान करता है।
स्वामी विवेकानंद सामाजिक शोध संस्थान के सचिव अजीत कुमार ने कहते हैं कि हरिहर क्षेत्र के सोनपुर मेला का अपना एक अलग अर्थशास्त्र है जो बेरोजगारों को रोजगार के नए-नएअवसर उपलब्ध कराता है। इस मेला मे अटक से कटक, कश्मीर से कन्याकुमारी तक के विभिन्न संस्कृति की चादर ओढे हरिहर क्षेत्र मेले का धार्मिक सांस्कृतिक के अलावे पूर्व से पश्चिम -उत्तर से दक्षिण को जोड़ने वाले संस्कृति से लोग रूबरू होते हैं। एक महीने तक यह मेला एक बड़े व्यवसायी क्षेत्र में तब्दील हो जाता है। जहां स्थानीय से लेकर राष्ट्रीय और अंतरराष्ट्रीय स्तर का कारोबार होता
है। यहां रोज करोड़ों का कारोबार प्रतिदिन होता है।
यहां कश्मीर, मेरठ, इलाहाबाद, दिल्ली, पंजाब, हरियाणा, असम, उत्तर प्रदेश और बिहार के कई
बड़े छोटे सुती कपड़े, ऊनी कपड़े, लकड़ी के सामान की बड़ी-बड़ी दुकानें लगती है। स्थानीय लोगों को रोजगार के नए-नए अवसर प्रदान होता हैं मेले पर पाबंदी से सब चीज बिखरता हुआ दिख रहा है। यह मेला शो बिजनेस के लिए भी काफी मशहूर रहा है। मेले में आधा दर्जन से ज्यादा थिएटर
कंपनियां, मौत की कुआं, सर्कस और जादूगर के स्टेज शो लगते हैं। उससे हजार से ज्यादा कलाकारों और स्थानीय लोगों को रोजी-रोटी मिलती है। स्थानीय युवकों को थिएटर संचालन, प्रबंधक के काम में लगे रहने से उनको आर्थिक रूप से स्वालंबन मिलता है।
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मेले में महेश्वर चौक से गाय बाजार तक मौत का कुआं ,चाय-नाश्ते की दुकान,खिलौने का प्रदर्शनी, भालू-बंदर की नाच, सूती-ऊनी कपड़े की दुकान, हवा मिठाई वाले या बनारस की पान दुकान, मछली पराठा बेचने वाले, समोसा लिट्टी खिलाने वाले, पानी फल भेजने वाले, अमरूद, केला, नारियल फल की टोकरी लगाने वाले, तोता से भविष्य की पर्ची निकालने वाले जैसी छोटी कमाई करने वालों का तो पूरे साल की अर्थ व्यवस्था ही चरमरा जाती है। ऐसे गरीब गुरवा की मानें तो मेला न लग पाने की बात सुनकर ही उनकी सांसे अटक गई हैं। साल भर पहले से आस लगाए बैठे लोगों को अपनी जिंदगी मौत की कुएं जैसा दिख रही है।