मुकेश महान
नेता नहीं, बेटा है। यह नारा कभी पप्पू यादव को लेकर पटना और आस पास के फिजा में चर्चित हुआ था। पप्पू यादव, कौन पप्पू यादव , यह बताने की जरुरत अब नहीं रही। बिहार के किसी नेता के मुकाबले वह कम चर्चित और लोकप्रिय नहीं हैं। बाहुबली और दबंग की पहचान तो नेता बनने के पहले से ही इनके साथ जुड़ी थी। इसके साथ कई तरह के आरोप भी इनके साथ चोली-दामन के साथ चिपका रहा। राजनीति से जुड़े तो जेल का भी लंबा अनुभव इनको मिला। कई पार्टियों और कई नेताओं का भी स्वाद इन्होंने चखा। यहां तक कि किचन में साथ साथ की तस्वीर पति-पत्नी की वायरल होती रही और चुनावी मैदान में दोनों पति पत्नी के हाथ में अलग अलग पार्टियों का सिम्बल भी दिखता रहा। पार्टी दर पार्टी घूम लेने के बाद जब पप्पू यादव का मन कहीं नहीं रमा, तो उन्होंने अपनी जन अधिकार पार्टी (जाप) ही बना ली। अब वो खुद की पार्टी जाप चला रहे हैं वर्षों से। हद तो ये है कि जाप को भी लोग पप्पू यादव के नाम से ही जानते हैं।
दूसरी तरफ ये कहने में कोई गुरेज नहीं कि बिहार में किसी भी पार्टी या नेता से ज्यादा सक्रिय है जाप और पप्पू यादव। ऐसे में सहज ही सवाल बनता है कि आखिर किसी भी सदन में क्यों उप्सथिति नहीं बना पाई है जाप? सवाल तो ये भी बनता है कि फिलवक्त किसी सदन तक क्यों नहीं पहुंच पाए पप्पू यादव स्वयं या उनके घर के अन्य सदस्य। सनद रहे कि उनकी पत्नी भी अभी किसी सदन में नहीं हैं। इस सवाल का जबाव ढ़ूंढना निहायत ही जरुरी है। यह इसलिए भी जरुरी है कि इसी जबाव में छिपा है वोटर्स की मानसिकता का रहस्य। …और इसी जबाव में छुपा है वह चूक जिसने जाप, खुद पप्पू यादव और उनकी पत्नी को सदन से बाहर ही रोके रखा।
हार की समीक्षा तो जाप में हुई ही होगी। लेकिन इस सवाल का जबाव न तो जाप को मिला और न ही पप्पू यादव को मिल पाया। यह भी सोचने की बात है कि जिस पप्पू यादव के लिए 2019 के बाढ में और बाढ के बाद और 2020 के कोरोना संक्रमण के चरम काल में नेता नहीं, बेटा है पप्पू यादव, जैसे नारे गढ़े जाने लगे थे या गढ़े जा रहे थे, उस पप्पू यादव को जनता ने 2020 के विधानसभा तक पहुंचने लायक नेता भी नहीं समझा और न ही उनकी पार्टी को इस लायक समझा कि पार्टी के किसी एक को भी विधान सभा में पहुंचाया जाए।
यहां यह चर्चा भी समीचीन है कि एक पीआर टीम भी पप्पू यादव और उनकी पार्टी के लिए सदा सक्रिय रहती है। हर मुद्दों पर प्रेस कांफ्रेंस और बयान जारी होता है। पीआर टीम उसे समय पर रिलीज भी करती है और मीडिया अपने हिसाब से उसे जगह भी देती रही है। पप्पू यादव खुद जनता के बीच के नेता रहे हैं और अब भी जनता के बीच ही घीरे रहते हैं। आज भी सीधे जनता की भला करने वालों में व्यक्तिगत रुप से उनसे आगे कोई नेता नहीं दिखता है बिहार में। फिर क्या वजह रही कि विधान सभा चुनाव में एक अदद जीत नहीं हासिल हो पाई इनको और इनकी पार्टी को।
उनकी और सेवाओं को छोड़ भी दें तो हालिया पटना में आई बाढ़ में घुटने भर से लेकर कंठ भर पानी में माथे पर सामान की टोकड़ी उठाए वो उस-उस घर तक पहले पहुंचते रहे, जहां सरकार की सहायता बाद में पहुंची या फहुंच पाती। पटना के कई घर परिवार तो इनकी सहायता के बूते ही बच पाया था। पप्पू यादव पानी से लबालब भरे पटना में तब रोज और नियमित अपनी ड्यूटी निभा रहे थे, जब दूसरे नेता अपना मुँह चुरा रहे थे और अधिकारी सरांध भरे पानी में निकलने के डर से छुट्टियों पर जा रहे थे।
कोरोना संक्रमण के चरम काल में जब और नेता अपनी जान की फिक्र में घर में दुबके बैठे थे, तो पप्पू यादव सर्वाधिक सक्रिय दिखे थे। शुरुआत में बिहारी मजदूरों को नहीं लाने-बुलाने की मुख्यमंत्री नीतीश कुमार की घोषणा के बाद जाप सुप्रीमो पप्पू यादव सक्रिय हुए। बिहार से बाहर रहने वाले मजदूरों को पैसा भेजने से लेकर वापस बिहार लाने के लिए दिल्ली, कोटा जैसी जगहों पर बसों की लंबी लाइन खड़ी कर दी। निश्चित रुप से उनके इस प्रयास के बाद सरकार की निंद भी टूटी और फिर सरकार द्वारा ट्रेनें और बसों की व्यवस्था की जाने लगी। तब पप्पू यादव का एक नया चेहरा और नई छवि एक बेटा के रुप में जनता के सामने उभरी थी। इसके पहले भी जनहित में निजी डाक्टर और अस्पताल के खिलाफ उनके द्वारा चलाया गया अभियान को जनता द्वारा सराहा गया था। अपने इन सब कामों और स्वभाव से तो वे जनता के बीच लोकप्रिय हो गए लेकिन वोटर्स को नहीं लुभा पाए और चुनावी मैदान में वो चारो खाने चित हो गए। साफ है कि वो चुनावी चाल और वोटर्स के नब्ज को पकड़ने में वो बुरी तरह नाकामयाब रहे।
दरअसल पप्पू यादव लोकप्रिय तो हो गए और उनके ही बूते जाप की लोकप्रियता का ग्राफ भी बढता रहा। लेकिन चुनाव में वो इसका लाभ नहीं उठा सके। तो सवाल उठता है कि बिहार के इस बेटे का चुनावी भविष्य क्या होगा। क्या जाप और पप्पू यादव कभी बिहार में सत्ता की सीढ़ी चढ पाएंगे या दर्जनों और पार्टी की तरह सिर्फ चुनाव आयोग की सूची तक ही सीमट कर रह जाएंगे।
राजनीतिक गलियारे में भी पप्पू यादव के कामों की लगातार सराहना होती रही। साथ ही एक भी जीत न मिलने पर अफसोस भी जताया जाता गया। यह भी चर्चा होती रही कि पप्पू यादव की राजनीतिक धमक अब फीकी तो नहीं पडने लगी। लेकिन सच तो ये है कि पप्पू यादव इतना कुछ करने के बाद भी अपने वोटर्स को कंविस नहीं कर पाए। अब इसकी वजह तो उनको ढूंढनी ही होगी। पार्टी में कुछ वैसे गंभीर और विश्वसनीय चेहरों को बढाना होगा, जो पप्पू यादव की उपलब्धियों और सेवा कार्यों के सहारे मतदाताओं को जाप के पक्ष में कंविंस कर पाएं। जाप कार्यकर्ताओं को जमीनी स्तर पर लगातार काम कर जनता के बीच एक गंभीर और विश्वसनीय छवि बनानी ही होगी। तभी जाप के पक्ष में कुछ सार्थक हो पाएगा।