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हर काम मुनाफ़े या नुक़सान के लिए नहीं किया जाता : अजित कुमार

एक शिक्षक ऐसा भी…जो रेलवे प्लेटफॉर्म पर चलते हैं स्कूल

अजीत कुमार बरौनी प्लेटफार्म पर चलाते हैं स्कूल

रेलवे प्लेटफर्मों पर सिसकते नौनिहालों की गुमराह होती ज़िन्दगी आमतौर पर सबने देखी होगी। रोटी के चंद टुकड़ों और कुछ सिक्कों के खातिर इनका मासूम बचपन रेलवे प्लेटफार्म पर गुजर जाता है और जवानी नशा और अपराध के शिकंजे में फंस कर रह जाती है। लेकिन विरले ही होते हैं जो इनकी संवेदनाओं को समझते हैं और इन्हें नशा और अपराध से बचा लेते हैं या बचाने की कोशिश में जुट जाते हैं। जी हां, ऐसे ही एक विरले हैं उत्क्रमित मध्य विद्यालय रेलवे बरौनी, तेघरा, बेगुसराय के शिक्षक अजीत कुमार और उनका पूरा परिवार। अजीत के परिवार ने रेलवे प्लेटफार्म पर एक स्कूल चला रखा है। स्कूल भी ऐसा जहां प्लेटफार्म पर अवारा बच्चों को मुफ्त शिक्षा, भोजन और पाठन सामग्री उपलब्ध कराई जाती है। इसी संदर्भ में मुकेश महान ने अजीत कुमार से लंबी बातचीत की। प्रस्तुत है उसके मुख्य अंश…

पठन-पाठन तो आप स्कूल में करते ही रहे हैं। फिर प्लेटफार्म पर स्कूल शुरु करने की वजह…?

–जब मैंने देखा कि देश भर के प्लेटफार्म पर लाखों अनाथ, बेसहारा बच्चे अशिक्षा, भूख, कुपोषण और नशे की गिरफ्त में आकर अपना बचपन को खो रहे हैं। साथ ही बड़े होकर इनमें से अधिकतर बच्चे अपराध जगत का हिस्सा बन जाते हैं। इनकी देखभाल करने वाला कोई नहीं होता।

ढेर सारी सरकारी योजनाओं और स्वयंसेवी संगठनों के बाद भी इन बच्चों को कोई लाभ नहीं मिल पाता है। तब हमारे मन में ललक जगी कि क्यों न इन बच्चों के लिए कुछ किया जाए। बस इसी ललक ने ‘प्लेटफार्म पर स्कूल” का कंसेप्ट डेवलप कर दिया।   

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रेलवे प्लेटफार्म पर रहने वाले अनाथ, बेसहारा, बाल श्रमिक व नशे के आदि बच्चों (5 से 14 वर्ष,) के लिए 5 फरवरी 2013 से शैक्षणिक व नशा मुक्ति अभियान आरम्भ किया। और इसका नतीजा आप देख सकते हैं।

पत्नी और बच्चे कब से और क्यों जुड़े आपके इस अभियान से?

मैं और मेरी पत्नी शबनम मधुकर ने एक साथ ही इस अभियान की शुरुआत की थी। मैं उन बच्चों को भाषा और गणित पढ़ाने का काम करता था और मेरी पत्नी उन बच्चों के लिए खाना बनाकर लाती हैं, उन बच्चों को साफ-सफाई पर ध्यान देती हैं तथा उसे नशा छोड़ने के लिए प्रेरित भी करती  हैं।

2015 में मेरे इस अभियान से मेरे दोनों बच्चे जुड़े।बड़ा पुत्र दिव्यांशु राज सभी बच्चों को खेल और योगा में प्रशिक्षित करता है तो छोटा पुत्र आर्यन राज उन बच्चों को पेंटिंग सिखाता है, साथ ही मेरे अनुपस्थिति में उन बच्चों के लिए क्लास लेता है।                      

पत्नी और बच्चों के साथ आपका पूरा परिवार इस मिशन में लगा हुआ है। इससे क्या मिलता है परिवार को?

-कोई जरूरी नहीं है कि हर काम मुनाफे या नुकसान के लिए किया जाए। कुछ कार्य लोग आने बाले कल को बेहतर बनाने के उद्देश्य से भी करते हैं। इस कार्य से मुझे या मेरे परिवार को कोई आर्थिक लाभ तो नहीं मिलता हैं लेकिन मुझे और मेरे परिवार को एक सकून मिलता है एक संतुष्टि मिलती है जब उन बेसहारा बच्चों को एक चुनौती भरा जीवन के उपरांत भी उन्हें किताबो में उलझा देखता हूं। खुशी होती है जब ये बच्चे सामान्य बच्चों के साथ विभिन्न प्रतियोगिताओं में भाग लेते हैं और पुरष्कृत होते हैं। 

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स्थानीय लोगों का कितना सहयोग मिल पाता है? अगर नहीं तो क्यों?

-स्थानीय लोगों का मुझे मेरे इस अभियान में बहुत सहयोग मिलता है, जैसे-कुछ लोग पुराने कपड़े उपलब्ध करवा देते हैं, कुछ लोग उन बच्चों में किताब या कॉपी वितरित कर देते हैं, तो कुछ ऐसे भी व्यक्ति हैं जो अपने यहां होने वाले सामाजिक भोज में मेरे साथ प्लेटफार्म के बेसहारा बच्चों को भी आमंत्रित करते हैं। स्थानीय चिकित्सक कभी इन बच्चों से इलाज के पैसे नहीं लेते हैं। यहां तक कि उपलब्ध दवाइयां भी इनके लिए मुझे मुफ्त में मिल जाती हैं। स्थानीय दुकानदार भी काफी सहयोग करते हैं।वे लोग मुझे बिना मुनाफे का सामान दे देते हैं।जब कभी उन बेसहारा बच्चों के लिये कभी जूता-चप्पल, कपड़ा या कॉपी-पेंसिल खरीदता हूं।

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क्या आपके मन मुताबिक़ सभी चीजें हो रही हैं? अगर नहीं तो क्या बच जा रहा है ?

-जी नहीं, मेरा यह अभियान बरौनी जंक्शन के सिर्फ इन 40 बच्चों के लिए नहीं है। मेरा लक्ष्य है बिहार सहित भारतवर्ष में जितने भी इस तरह के अनाथ, बेसहारा बच्चे हैं जो भूख, कुपोषण व नशे के गिरफ्त में अपना जीवन और बचपन खो रहे हैं, उन्हें सामान्य बच्चों की तरह समाज और स्कूल में जगह मिले और उन्हें भी पढ़ लिख कर आगे बढ़ने का अवसर मिले। लेकिन अभी मैं अपने उद्देश्य से काफी पीछे हूं। इन 8 सालों में अभी तक बरौनी जंक्शन के बच्चों को भी छत मुहैया नहीं करवा पाया। मेरा सपना एक ऐसे स्कूल खोलने का है, जहां ऐसे बच्चों का सर्वांगीण विकाश संभव हो।उस स्कूल में ना सिर्फ उनके लिए पढ़ने की व्यवस्था हो वल्कि, खाने-पीने, खेलने, योगा के साथ -साथ उन्हें स्वरोजगार में भी प्रशिक्षित किया जा सके।                                

आप क्या करते हैं? किस स्कूल में हैं? फंड का जुगार कहां से करते हैं?

मैं पेशे से शिक्षक हूं तथा उत्क्रमित मध्य विद्यालय रेलवे, बरौनी (तेघरा) में वर्ष 2004 से कार्यरत हूं। मेरी पत्नी स्वास्थ्य विभाग में “आशा” कार्यकर्ता हैं। मेरे दोनों बच्चे दिव्यांशु राज और आर्यन राज सरकारी विद्यालय में 9वीं के छात्र हैं। मुझे कहीं से कोई फंड नही मिलता है और ना मैंने कभी फंड इक्कठा करने के बारे में सोचा है।अपने अभियान से जुड़े बच्चों के लिए मुझे जो भी व्यवस्था करनी होती हैं, खुद के संसाधनों से करता हूं।हां,अक्सर मुझे स्थानीय लोगों से खाना, कपड़ा या किताब कॉपी का सहयोग मिल जाता है।

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ये सब करने के पीछे आपका मक़सद क्या है?

मेरा खुद के बचपन का एक बड़ा हिस्सा अपने पिता सीताराम पोद्दार के साथ चाय बेचते हुए गुजरा। बचपन में मेरे परिवार की आर्थिक स्थिति अच्छी नहीं थी। मेरे पिताजी बरौनी में ही एक रेलवे भेंडर थे, उनकी चाय की दुकान थी। वे चाय बनाते थे और मैं खड़ी ट्रेनों में चाय बेचने का काम करता था। अपने उस संघर्ष के दिनों में मुझे प्लेटफॉर्म के ऐसे बेसहारा बच्चों के जीवन को करीब से देखने और समझने का अवसर मिला। मुझे बहुत दुख होता था जब दो वक्त की रोटी का जुगाड़ करने के लिए इन बच्चों को चोरी-पॉकेटमारी जैसे काम करते देखता था।छोटे-छोटे बच्चियों के साथ कुछ लोग चंद पैसे और भोजन का लालच दे कर गलत कर लेते थे या गलत करवा लेते थे। उस समय मुझे बहुत गुस्सा आता था और सोचता था कि इन बच्चों की ज़िंदगी में बदलाव कैसे आ सकता है। इनका तो जीवन प्लेटफार्म से शुरू होता है और जेल में खत्म हो जाता है। उन दिनों ही मैंने फैसला किया कि पढ़-लिख कर एक दिन शिक्षक बनूंगा और जिस दिन मैं शिक्षक बना और अपने पैरों पर खड़ा हुआ तो सबसे पहले मैं ऐसे बच्चों के लिए कुछ करूंगा। इनके जीवन में बदलाव लाऊंगा। इन कामों के पीछे मेरा मकसद सिर्फ इतना भर है कि वक्त और हालात के मारे जो बच्चें शिक्षा और समाज से वंचित रह जाते हैं और इस तरह नारकीय ज़िन्दगी जीने को विवश हैं, जो भूख, कुपोषण और नशे की गिरफ्त में पड़कर अपराध के रास्ते पर चलते हुए अपना जीवन और बचपन खो रहे हैं, उन्हें भी सामान्य बच्चों की तरह समाज में सम्मान के साथ जीने और शिक्षा प्राप्त करने का अवसर मिले। उन्हें भी जीवन में कुछ बेहतर करने और आगे बढ़ने का अवसर मिले।    

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अबतक कितने बच्चे आपके इस अभियान में शामिल हो चुके हैंक्या उनकी पढ़ाई अब भी जारी है?

अब तक लगभग 100 से ज्यादा बच्चे हमारे इस अभियान से जुड़ कर लाभ उठा चुके हैं। वर्तमान में 23 बच्चे अभी भी मेरे अभियान से जुड़े हुए हैं। लेकिन कोरोना महामारी के कारण रेलवे प्रशाशन द्वारा उन बच्चों को एकत्रित करने या अन्य शैक्षणिक व शारिरिक गतिविधितियों जैसे सामूहिक खेल-कूद व योगा पर प्रतिबंध लगा दिया गया है। स्थिति सामान्य होने पर बहुत जल्द फिर से अपने अभियान को पूर्ववत सुचारू रूप से आरंभ करूंगा।