संदर्भ…रामनवमी
राम शब्द शिष्टाचार है। राम एक शुद्ध विचार है। साथ ही सनातनी संस्कृति का मुख्य प्रवेशद्वार है। श्रीराम जन्मोत्सव से लेकर शरीर की अंतिम यात्रा तक राम रसायन की तरह पल पल हमारे पोषक तत्व की तरह साथ निभाते हैं। एक कवि की कल्पना के राम अलग हैं तो वही एक भजनकर्ता की गायन शैली के राम अलग हैं। आध्यात्मिक राम मोक्ष के चरम बिंदु हैं तो वहीं स्नेहिल राम किसी प्रेमी से विलग दिखाई देते हैं। कुल मिलाकर देखा जाय तो सभी चहेतों के अपने-अपने राम हैं। मानव शरीर धारण की अकुलाहट लिए भगवान भक्तों से कहते हैं- हम भी, तुम भी कई बार धरा पर आये तुम प्राणी हो इसलिए जान ना पाये। वेग अतिवेग,व्याकुलता,निष्ठा,संप्रभुता,सानिध्य,समर्पण और न जाने कितने उपमा-उपमेय के सरोकार से भक्त व भक्तवत्सल जुड़े रहते, कहना कठिन है।
यूं तो प्रणियों का जन्म कुल,वंश,सभी एक नियोक्ता के हाथ में माना जाता है। ऐसी बातें आध्यात्मिक सोच से लवरेज होती हैं। चैत्र रामनवमी के पुनीत दिवस को रेखांकित करते हुए श्रीराम ने मानव पर कृपा की। भय प्रकट कृपाला दीनदयाला। विश्लेषण में कहा गया है कि जब कभी भय से त्रस्त मानव आर्तमन से श्री राम को पुकारेगा, वे प्रकट हो जायेंगे।यानि राम नाम एक रक्षाकवच समान भी है।
फिर शुरु हआ खरमास,जानें कब से कर सकेंगे शुभ कार्य?
बात करें इक्ष्वाकु वंश की तो एक लंबी फेहरिस्त है। मानवीय वेदना-संवेदना की, अध्यात्म उत्कर्ष की, त्याग और बलिदान की तथा जनकल्याण की।श्रीराम से पूर्व भी अकल्पनीय योगदानों से यह वंश परंपरा चली आ रही है। जब नियोक्ता को खुद किसी जगह जनकल्याण कार्य करने की लालसा हो तो वह क्षण बड़ा ही विलक्षण माना गया है। अब श्रीराम की प्राकट्य तिथि को ही लें, चैत्रमास की नवमी तिथि। चैत्रमास चित्त को स्थिर रखने वाला माना गया है। शीत का अंत के साथ वसंत और फाग। हमसबों के नियोक्ता भगवान श्रीराम ने उस रेखांकित कुल को प्राकट्य के लिए चुना,जिस कुल को एक से एक सिरमौर धर्म योद्धाओं ने सुशोभित कर रखा है। दसरथ के वंश को त्याग, समर्पण,संयम व सहनशीलता के साथ ही मानवीय मूल्यों से युक्त वचनबद्धता के शीर्ष पर माना जाता रहा। सर्वविदित है “रधुकुल रीति सदा चलि आयी,प्राण जाय पर वचन न जाई। इन पंक्तियों में एक वैसा संकल्प है, जिसका विकल्प नहीं हो सकता”। वचनवद्धता की लकीर से साक्षात मृत्यु को आलिंगनवद्ध करने का दुस्साहसिक कृत्य राम के वंश की एरोमा रही है । राम जनजन के आदर्श थे, हैं और रहेंगे। जाति, वर्ग, वर्ण और किसी विभेद रूपी मर्यादा का उल्लंघन नहीं कर राम विश्व के लिये मर्यादा पुरुषोत्तम भगवान श्री राम हो गए। यही कारण है कि बाबा तुलसीदास जी ने कहा..”होइहि सोइ जो राम रचि राखा” तो एक पल के लिए पूर्व अर्जित कृत्य फल की ओर इशारा है। वैसे मरा मरा का उच्चारण दोष कब राम राम जपने लगता है कहना कठिन है।
एक कवि की कल्पना..
“बचपन में सिखाया लोगों ने,
कि धाम सत्य है।
यौवन में सिखाया लोगों ने
कि काम सत्य है।
जब प्राण रूपी राम चले
तन की अयोध्या से
तब लोगों ने समझाया
राम नाम सत्य है।”