शिवरात्रि पर विशेष
शंभुदेव झा
सृष्टिकर्ता शिव,नाश कर्ता शिव, कल्याणकारी शिव और न जाने अखंड ज्योति का सूक्ष्म तरंग हैं या फिर शैव और तथैव के बीच का एक अंतर हैं शिव।कुल मिला कर इंसान के वशीभूत हैं शिव या हर व्यक्ति के अपने द्वारा देय उपमा उपमेय का पराक्रम हैं शिव, या फिर कुछ और।
सफलता दिलाती है विजया एकादशी
जिसने भी भक्त के रूप में शिव को साधने व मन से बांधने की चेष्टा की ,वह शिव को पा सका या नहीं कहना कठिन है क्योंकि वे गृहस्थ आश्रम से जुड़े योगेश्वर के रूप में देवी पार्वती के संग लीन अर्धनारीश्वर स्वरूप हैं।उन्हें हम ज्योतिर्लिंगों के साक्षात दर्शन में भी पूजते हैं तो वहीं निरंकार ऊं के दिग्दर्शन व स्वर संधान का साक्षी भी मानते हैं। कहीं गिरिजा समेकं वाम भागं हैं तो कही साधक के साथ उसके मर्म के अनुसार भोलेनाथ बन जाते हैं ।तभी को अमृत पान कर चुका राहु की जीवन लीला पल में समाप्त हो जाती क्योंकि उसका उद्देश्य था दानव प्रवृत्ति के अनुसार लेकिन शिव ने मानवीय संवेदनाओं के लिए विषपान कर अमिय हलाहल नीलकण्ठ बन गये और आदिगुरु शिव के रुप में जगत के पालक बन गये।
अपने सभी उम्र के भक्तों के लिए भोलेनाथ”बाबा”हैं ।अबोध से लेकर साक्षर तक के बाबाशिव अपरिभाषित से हैं। जिसका मन जैसे साधने का हो साध लो।एक शिव शमशानी हैं तो वहीं किसी के लिए औघरदानी भी। राम नाम शिव को अति प्यारा है।
जाने क्यों शिवलिंग पर तुलसी का प्रयोग है वर्जित
तभी तो शिवभक्त यहां तक कहने से हिचकते नहीं कि “चुकि जब एक इंसान का लोकांतरण होता है तो अंतिम यात्रा के दौरान उचारे गये “राम नाम सत्य है” शब्दांजलि शिव को आकर्षित किया करते हैं और देहांत तक वहीं स्वरांजलि गूंजती रहती है इसलिए शिव को श्मशान के राम शब्द से रंजित भस्म मनभावक और प्रिय हैं।अपितु शिव सेवक भस्म को अपनाते और महाकाल पूजन से लेकर सामान्य नचारी गायन तक भस्म ,बाबा का शृंगार बन गया। वंदे विद्यातीर्थं महेश्वरम् ,शम्भवे गुरुवे नमः।महामृत्युञ्जय जाप के उपरांत कायाकल्प होना केवल कल्पना नहीं है बल्कि एक औषधीय प्रमाण जैसा सूक्ष्मता मानव महसूस करता है। सविधि पूजा-अर्चना से इतर शिव की भक्ति सर्व सुलभ माना जाता है। परंपरागत शिवार्चन और शिव यज्ञानुष्ठान दोनोँ स्वरूपों में पूजन विधान है. करूणानिधि भगवान शिव अपने भक्तों का मान स्वयं से अधिक मानते हैं तभी तो नन्दी को” प्रमथनाथ महेश्वराय” का दर्जा शिव कल्पना में आता है।
कहा जाता है कि “नायमात्माबल ही नेन लभ्य:। बलहीनता से ईश्वर की प्रप्ति नहीं हो सकती। सोये भक्ति को जगा कर ही व्यक्ति में शक्ति का संचार किया जा सकता है।तात्पर्य यह है हर इंसान में कहीं न कहीं अध्यात्म का दीप जलते रहता है।प्रज्वलित करने भर की देर है। परम चेतना शिव ही हैं। माना जाता है कि सबकुछ प्राणों के अधीन ही रहा है अतः उपनिषद के अनुसार वर्णित अंश “प्राणस्येदं वशे सर्व त्रिदिवे यत्प्र-तिष्ठतम्, मातेव पुत्रान् रक्षस्व श्रीश्र्च प्रज्ञां च विधेहि न इति