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शनि क्यों हुए शनैश्चर ?

 रत्नेश पाठक

क्यों फलदाई है शनि दशा में पीपल वृक्ष की  पूजा ?

शनि को श्नैश्चर भी कहा जाता है, लेकिन क्यों। इसे जानने के लिए हमें देवासुर संग्राम के इस प्रसंग को जानना जरुरी है। हम जानते हैं कि देवासुर संग्राम में असुरराज वृत्तासुर के सामने असहाय हो चुके देवताओ को जब पता चला कि यदि महर्षि दधीचि की अस्थियों का अस्त्र(वज्र) बनाकर असुरराज पर प्रहार किया जाएगा तो उसका विनाश हो जाएगा।

यह जानकर देवेंद्र महर्षि दधीचि के सम्मुख देह दान करने की याचना लेकर पहुंच गए। उस समय महर्षि दधीचि की उम्र मात्र 31 वर्ष और उनकी धर्मपत्नी की उम्र 27 वर्ष थी तथा गोद के नवजात बच्चे की उम्र मात्र 3 वर्ष थी। देवेंद्र इन्द्र की याचना और देवताओं पर आए संकट निवारण के लिए महर्षि दधीचि अपने देह का दान करने के लिए तैयार हो गए और अपना प्राण योगबल से त्याग दिया। तब देवताओं ने उनकी अस्थियां निकाल कर मांसपिंड को उनकी पत्नी को दाह संस्कार के लिए दे दिया।

 श्मशान में महर्षि दधीचि के मांसपिंड का दाह संस्कार के समय उनकी पत्नी पति का वियोग सहन नहीं कर पायीं और पास ही स्थित विशाल पीपल वृक्ष के कोटर में 3 वर्ष के बालक को रख स्वयम् चिता में बैठकर सती हो गयीं।

 महर्षि दधीचि और उनकी पत्नी का तो बलिदान हो गया लेकिन पीपल के कोटर में रखा बालक भूख प्यास से तड़प-तड़प कर चिल्लाने लगा।

जब खाने की कोई वस्तु नहीं मिली तो कोटर में गिरे पीपल के गोदों(फल) को खाकर वह बालक बड़ा होने लगा। कालान्तर में पीपल के पत्तों और फलों को खाकर बालक का जीवन येन केन प्रकारेण सुरक्षित रहा।

 एक दिन देवर्षि नारद वहां से गुजर रहे थे। नारद ने पीपल के कोटर में बालक को देखकर उसका परिचय पूंछा-तुम कौन हो बालक और तुम्हारे जनक कौन हैं।तब बालक ने कहा कि यही तो मैं जानना चाहता हूँ। तब नारद ने अपने दिव्यशक्ति से ध्यान कर देखा। नारद ने आश्चर्यचकित होकर उस बालक को  बताया कि हे बालक, तुम महान दानी महर्षि दधीचि के पुत्र हो। तुम्हारे पिता की अस्थियों का वज्र बनाकर ही देवताओं ने असुरों पर विजय पायी थी। नारद ने बताया कि तुम्हारे पिता दधीचि की मृत्यु मात्र 31 वर्ष की उम्र में ही हो गयी थी।

तब बालक ने पूछा कि मेरे पिता की अकाल मृत्यु का कारण क्या था ? और मेरे ऊपर आयी विपत्ति का कारण क्या था? बालक की जिज्ञासा जानकर नारद ने कहा कि यह सब तुम्हारे पिता पर शनिदेव की महादशा के कारण हुआ था।

  इतना बताकर देवर्षि नारद ने पीपल के पत्तों और गोदों को खाकर जीने वाले उस बालक का नाम पिप्पलाद रखा और उसे दीक्षित भी किया।

नारद के जाने के बाद बालक पिप्पलाद ने नारद के बताए अनुसार ब्रह्मा जी की घोर तपस्या कर उन्हें प्रसन्न किया। ब्रह्मा जी ने जब बालक पिप्पलाद से वर मांगने को कहा तो पिप्पलाद ने अपनी दृष्टि मात्र से किसी भी वस्तु को जलाने की शक्ति माँगी।

ब्रह्मा जी से वर मिलने पर सर्वप्रथम पिप्पलाद ने शनि देव का आह्वाहन कर अपने सम्मुख प्रस्तुत किया और सामने पाकर आँखे खोलकर भष्म करना शुरू कर दिया।

शनिदेव सशरीर जलने लगे। ब्रह्मांड में कोलाहल मच गया। सूर्यपुत्र शनि की रक्षा में सारे देव विफल हो गए। सूर्य अपनी आंखों के सामने अपने पुत्र को जलता हुआ देखकर ब्रह्मा जी से बचाने हेतु विनय करने लगे।

 अन्ततः ब्रह्मा जी स्वयम् पिप्पलाद के सम्मुख पधारे और शनिदेव को छोड़ने की बात कही, किन्तु पिप्पलाद तैयार नहीं हुआ।

 ब्रह्मा जी ने एक के बदले दो वर मांगने की बात कही। तब पिप्पलाद ने खुश होकर दो वरदान मांगे, जो इस प्रकार थे।पिप्लाद ने पहला वर मांगा कि  जन्म से 5 वर्ष तक के उम्र के किसी बालक की कुंडली में शनि का स्थान नहीं होगा, जिससे कोई और बालक मेरे जैसे अनाथ न हो पाए।

दूसरे वरदान  के रूप में पिप्लाद ने मांगा कि  मुझ अनाथ को शरण पीपल वृक्ष ने दी है। अतः जो भी व्यक्ति सूर्योदय के पूर्व पीपल वृक्ष पर जल चढ़ाएगा उसपर शनि की महादशा का असर नहीं होगा।

 ब्रह्मा जी ने तथास्तु कह वरदान दिया। तब पिप्पलाद ने जलते हुए शनि को अपने ब्रह्मदण्ड से उनके पैरों पर आघात करके उन्हें मुक्त कर दिया। जिससे शनिदेव के पैर क्षतिग्रस्त हो गए और वे पहले जैसी तेजी से चलने लायक नहीं रहे।

अतः तभी से शनि “शनै:चरति य: शनैश्चर:” अर्थात जो धीरे चलता है वही शनैश्चर है, कहलाये और शनि आग में जलने के कारण काली काया वाले अंग भंग रूप में हो गए।

       ये ही कारण है कि शनि की काली मूर्ति होती है और पीपल वृक्ष की पूजा से शनि की दशा का कुप्रभाव नाश होता है। आगे चलकर इसी पिप्पलाद ने प्रश्न उपनिषद की रचना की।