‘ हमारी विभूतियाँ : स्व मुंशी काली प्रसाद कुलभास्कर ‘ स्व मुंशी काली प्रसाद कुलभास्कर भारतवर्ष के प्रतिष्ठित शिक्षण संस्थान समूह के संस्थापक, एडवोकेट, स्वतंत्रता सेनानी एवं शिक्षाविद थे। मुंशी काली प्रसाद जी का जन्म 3 दिसंबर 1840 को जौनपुर के लपटन गंज में एक कायस्थ परिवार में हुआ था। उनके पिता मुंशी दीन दयाल सिंह की पहचान संस्कारिक और धार्मिक प्रवृत्ति के इंसान के रूप में थी।
मुंशी काली प्रसाद ने प्रारंभिक शिक्षा संस्कृत में ली और महज छह साल की उम्र में अरबिक और फारसी भाषा में उन्होंने फाजिल की डिग्री प्राप्त की। इसके बाद मुंशी जी ने काशी के गवर्नमेंट नॉर्मल स्कूल में दाखिला लेकर इंग्लिश लैंग्वेज की परीक्षा पास की। 1857 के पहले स्वतंत्रता संग्राम के दौरान उन्होंने नौकरी छोड़ दी। 1858 में पुन: बनारस के परगना विजिटर नियुक्त हुए। उन्होंने लखनऊ में वकालत शुरू की और देखते ही देखते प्रसिद्ध हो गए।
जिस समय देश स्वतंत्रता के लिए लड़ रहा था, उस समय मुंशी काली प्रसाद स्वतंत्रता के बाद के भारत के स्वरूप को लेकर चिंतित थे। किसी देश के विकास के लिए शिक्षा बहुत जरूरी है, इसलिए वह समाज के नवयुवकों को शिक्षित करने की दिशा में अग्रसर हो गए। उन्होंने अपनी पूरी चल और अचल संपत्ति के अलावा पत्नी का आभूषण भी दान करके केपी ट्रस्ट नाम से संस्था बनाकर शिक्षा के विकास में जुट गए। उन्होंने अपार धन संचित करने के साथ कायस्थ समाचार का प्रकाशन शुरू कर दिया।
मुंशी काली प्रसाद के जीवन का महानतम काम था इलाहाबाद में कायस्थ पाठशाला की स्थापना। इस पाठशाला की स्थापना करके मुंशी जी ने इसमें स्वयं सामान्य अध्यापक की तरह बच्चों को पढाने का काम भी किया। पाठशाला को वह कितना प्यार करते थे और उसे कितना महत्व देते थे, यह उनके इस अध्यापन कार्य से ही प्रमाणित है। Read als हमारी विभूतियां : महान साहित्यकार के साथ समाज सुधारक भी थे मुंशी प्रेमचंद
आरम्भ में इस पाठशाला में कुल सात छात्र थे और नियमित अध्यापक थे मुंशी शिवनारायण जी। परन्तु देखते देखते यह पाठशाला उन्नति करके इन्ट्रेन्स तक की शिक्षा देने लगी, जिसके लिये सन् 1888 ई. में उसे कलकत्ता विश्वविद्यालय से मान्यता भी प्राप्त हो गयी। मुंशी काली प्रसाद ने घर-घर भिक्षा मांगकर केपी कालेज की नींव डाली थी। गरीब बच्चों की शिक्षा के लिए उन्होंने अपना सबकुछ दान दे दिया।
हालांकि अपना सबकुछ दान करने के बाद मुंशी काली प्रसाद के पास कुछ नहीं बचा था। 9 नवंबर 1886 में उन्होंने अंतिम सांस ली। उस समय उनके शव की ढँकने के लिए कफन का भी पैसा न था। इसका प्रबन्ध ट्रस्ट को ही करना पड़ा। ऐसे त्याग और सर्वस्वदान का कोई दूसरा उदाहरण विरले ही मिलता है।