आईएनए के संस्थापक स्व. रासबिहारी बोस , जिनके त्याग ,बलिदान एवं अभूतपूर्व रण कौशल को कभी भूलाया नहीं जा सकता है। भारत माता को फिरंगियों की बेड़ियों से मुक्त कराने की पृष्ठभूमि तैयार करने में स्व रास बिहारी बोस की भूमिका अग्रणी और अविस्मरणीय रही है।
बीसवीं सदी के पूर्वार्ध में प्रत्येक देशवासी के मन में भारत माता की दासता की बेडि़यां काटने की उत्कट अभिलाषा जोर मार रही थी। कुछ लोग शान्ति के मार्ग से इन्हें तोड़ना चाहते थे, तो कुछ अपने साहस, पराक्रम और वीरता से गोली, बंदूक और बम का सहारा लेकर अंग्रेजों को सदा के लिए सात समुन्दर पार भगाना चाहते थे। ऐसे समय में बंगभूमि ने अनेक सपूतों को जन्म दिया, जिनकी एक ही चाह और एक ही राह थी – भारत माता की पराधीनता से मुक्ति।
25 मई 1886 को बंगाल के चन्द्र नगर में रासबिहारी बोस का जन्म हुआ। वे बचपन से ही क्रान्तिकारियों के सम्पर्क में आ गये थे। हाईस्कूल पास करते ही वन विभाग में उनकी नौकरी लग गयी। यहां रहकर उन्हें अपने विचारों को क्रियान्वित करने का अच्छा अवसर मिला। चूँकि सघन वनों में बम, गोली का परीक्षण करने पर किसी को शक नहीं होता था।
रासबिहारी बोस का सम्पर्क दिल्ली, लाहौर और पटना से लेकर विदेश में स्वाधीनता की अलख जगा रहे क्रान्तिवीरों तक से था। 23 दिसम्बर 1912 को दिल्ली में वायसराय लार्ड हार्डिंग की शोभा यात्रा निकलने वाली थी। रासबिहारी बोस ने योजना बनाई कि वायसराय की सवारी पर बम फेंककर उसे सदा के लिए समाप्त कर दिया जाये। इससे अंग्रेजी शासन में जहां भय पैदा होगा, वहीं भारतीयों के मन में उत्साह और आत्मविश्वास का संचार होगा।
योजनानुसार रासबिहारी बोस तथा बलराज ने चांदनी चौक से गुजरते समय एक मकान की दूसरी मंजिल से बम फेंक कर वायसराय लार्ड हार्डिंग को मारने की कोशिश की। पर दुर्भाग्यवश वायसराय को कुछ चोटें ही आईं। वह मरा नहीं। रासबिहारी बोस फरार हो गये। पूरे देश में उनकी तलाश जारी हो गयी। ऐसे में उन्होंने अपने साथियों की सलाह पर विदेश जाकर देशभक्तों को संगठित करने की योजना बनाई। उसी समय विश्वकवि गुरुदेव रवीन्द्रनाथ टैगोर जापान जा रहे थे। वे भी उनके साथ उनके सचिव पीएन टैगोर के नाम से जापान चले गये। पर जापान में वे विदेशी नागरिक थे। जापान और अंग्रेजों के समझौते के अनुसार पुलिस उन्हें गिरफ्तार कर भारत भेज सकती थी। अतः कुछ मित्रों के आग्रह पर उन्होंने अपने शरणदाता सोमा दम्पति की 20 वर्षीय बेटी तोसिको से उसके आग्रह पर विवाह कर लिया। इससे उन्हें जापान की नागरिकता मिल गयी।
यहां तोसिको का त्याग भी अतुलनीय है। उसने रासबिहारी के लिए मानव कवच की भूमिका निभाई। जापान निवास के सात साल पूरे होने पर उन्हें स्वतन्त्र नागरिकता मिल गयी। अब वे कहीं भी जा सकते थे।उन्होंने इसका लाभ उठाकर दक्षिण एशिया के कई देशों में प्रवास किया और वहां रह रहे भारतीयों को संगठित कर अस्त्र-शस्त्र भारत के क्रान्तिकारियों के पास भेजते रहे। उस समय द्वितीय विश्व युद्ध की आग भड़क रही थी।
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रासबिहारी बोस ने भारत की स्वतंत्रता के लिए इस युद्ध का लाभ उठाने के लिए जापान के साथ आजाद हिन्द की सरकार के सहयोग की घोषणा कर दी। उन्होंने जर्मनी से सुभाषचन्द्र बोस को बुलाकर ‘सिंगापुर मार्च’ किया तथा 1941 में उन्हें आजाद हिन्द की सरकार का प्रमुख तथा फौज का प्रधान सेनापति घोषित किया गया।
देश की स्वतन्त्रता के लिए विदेशों में अलख जगाते और संघर्ष करते हुए रासबिहारी बोस का शरीर थक गया। उन्हें अनेक रोगों ने घेर लिया था। 21 जनवरी 1945 को वे भारत माता को स्वतन्त्र देखने की अपूर्ण अभिलाषा लिये हुए ही चिरनिद्रा में सो गये।