पटना। दलबदल विरोधी कानून (Anti defection law) की संवैधानिकता पर फिर से विचार करने के लिए उसे एक संवैधानिक पीठ के पास भेजने की मांग पर सर्वोच्च न्यायालय ने संज्ञान लेते हुए जनहित याचिका के रूप में सूचीबद्ध किया है। यह कानून संसद और विधानमंडलों में सदस्यों के स्वतंत्र विचार रखने में बहुत बड़ा बाधक है। जनहित याचिका पर आने वाले दिनों में कोर्ट में बड़ी बहस होने की संभावना है।
मुम्बई विश्वविद्यालय के प्रवीण गांधी कॉलेज ऑफ लॉ में तृतीय वर्ष का छात्र पटना निवासी शिवेश सिन्हा ने सर्वोच्च न्यायालय के मुख्य न्यायाधीश को लिखे पत्र में देश की बड़ी अदालत से दलबदल विरोधी कानून (Anti defection law) का संज्ञान लेने और इसे न्यायिक जांच के लिए संवैधानिक पीठ के पास भेजने का अनुरोध किया है। चार पेज के पत्र में लिखा गया है कि राजनीतिक भ्रष्टाचार और रिश्वतखोरी से प्रेरित राजनीतिक दलबदल से निपटने के इरादे से बना यह कानून लोकतंत्र के मूल आधार को कमजोर करता है।
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श्री सिन्हा अपने पत्र में कहते हैं कि दलबदल विरोधी कानून की धारा 2(बी) सांसदों और विधायकों को पार्टी के सचेतकों द्वारा जारी व्हीप को मानने के लिए बाध्य करती है। जोकि लोकतंत्र के मूल आधार को कमजोर करने जैसा है। सांसदों/विधायकों को लोकतंत्र के मंदिर में अपने मन की बात कहने से भी यह कानून रोकता है। यह कानून सांसद और विधायक को सरकार को जिम्मेदार ठहराने की उनके संवैधानिक भूमिका को निभाने से भी रोकता है। सदस्यों को सदन में लगभग हर फैसले पर पार्टी नेतृत्व के निर्देशों के अनुसार ही बोलना पड़ता है।
श्री सिन्हा ने अपने पत्र में कहा है कि संसदीय लोकतंत्र की कीमत पर यह कानून बना है। उन्होंने कहा कि विडंबना यह है कि लोकतंत्र के मंदिर में ही असहमति की अनुमति नहीं है, जो लोकतंत्र का सार है। संसदीय प्रणाली में सदन के सदस्यों से यह अपेक्षा की जाती है की वे किसी मुद्दे पर कोई स्थिति तय करते समय अपने स्वयं के निर्णय का उपयोग करें। सदस्य को मतदान करते समय जनहित, निर्वाचन क्षेत्र के हितों और अपने स्वयं के विवेक के संयोजन से प्रभावित होना चाहिए। यदि सदस्यों को प्रत्येक विधेयक या प्रस्ताव पर दल के आधार पर मतदान करना आवश्यक हो तो पसंद की यह बुनियादी स्वतंत्रता खतरे में पड़ सकती है।
श्री सिन्हा अपने पत्र में लिखते हैं कि परिपक्व लोकतंत्र जैसे कि यूएस, यूके और कनाडा में दलबदल विरोधी कानून नहीं है। वहां कोई सदस्य पार्टी लाइन के खिलाफ जाता है तो पार्टियां निर्देश जारी कर सकती हैं या दबाव डाल सकती हैं। पर, उन्हें पार्टी के निर्देशों की अवहेलना करने के लिए अयोग्य नहीं ठहरा सकती हैं। लेकिन भारत, पाकिस्तान, बगंला देश, गुयाना, सिएरा, लियोन और जिम्बाब्वे ऐसे छह देश हैं जहां पार्टी व्हीप तोड़ने वालों को अयोग्य घोषित कर दिया जाता है।
श्री सिन्हा ने आगे लिखा है कि व्हीप के उल्लंघन पर फैसला लेने का अधिकार सदन के अध्यक्ष में निहित है। जिसे सही नहीं ठहराया जा सकता है। क्योंकि अध्यक्ष भी तो पार्टी का ही होता है। इसलिए उसकी निष्पक्षता संदिग्ध हो सकती है। सर्वोच्च न्यायालय के पूर्व न्यायाधीश न्यायमूर्ति आर. नरीमन इसी कारण संसद से दसवीं अनुसूची के तहत अयोग्यता का फैसला करने के अध्यक्ष की शक्ति को छीनने का आग्रह किया है।