इंटरव्यू

जनसरोकार की पत्रकरिता तभी ख़त्म हो गई जब मुनाफे की पत्रकारिता शुरू हुई : प्रमोद दत्त

पत्रकार प्रमोद दत्त से अल्का कुमारी की बातचीत
पत्रकारिता का लम्बा अनुभव रहा है आपका। क्या बदलाव महसूस करते हैं तब और अब में ?
-बहुत कुछ बदल गया है। पहले संपादक पद के लिए विद्वान की तलाश होती थी, अब बेहतर मैनेजर को संपादक बना दिया जाता है। कप्तान जैसा होगा, वैसी ही टीम होगी। जनसरोकार की पत्रकरिता तभी ख़त्म हो गई जब मुनाफे को पत्रकारिता पर बल देते हुए एक बेहतर प्रबंधक को संपादक बनाया जाने लगा। इसका असर प्रखंड स्तर तक की पत्रकारिता पर पड़ा। पहले ख़बरों के मामले में मुफ्फसिल पत्रकारों की वाहवाही होती थी, अब जो जीतना विज्ञापन देता है उसकी उतनी वाहवाही होती है। इस बदलाव का असर पूरी पत्रकारिता पर पड़ा है।
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इसके साथ साथ तकनीकी स्तर पर भी बदलाव हुए लेटरप्रेस से डीजिटल और सेटेलाइट संस्करण और सोशल मिडिया के युग में में पहुंच गई है पत्रकारिता। तकनीकी तौर पर जो बदलाव हुए वो सार्थक माले जा सकते हैं लेकिन खबर और संपादन के स्तर में गिरावट से इंकार नहीं किया जा सकता है।
प्रमोद दत्त जी, किन परिस्थितियों में आपने पत्रकारिता को अपना करियर बनाया ?
-बीए करने के बाद एमए में दाखिला तो लिया, साथ ही रोजगार की तलाश भी मैंने शुरू कर दी थी। सामान्य नौकरी की चाहत कभी नहीं थी। कुछ अलग करने का मन बना लिया था। जेपी आंदोलन के दौर से निकला था, तो उसका भी असर था। उन दिनों पत्रिकाएं पढ़ना और संपादक के नाम पत्र लिखने का शौक बन गया था। दिनमान जैसी पत्रिका में संपादक के नाम पत्र
(मत सम्मत) छपने पर ही लोगों को रिस्पॉन्स मिलता था। तब ही एक टर्निंग पॉइंट आया। दिनमान में भेजे गए मेरे एक पत्र को आर्टिकल के रूप में जगह दी गई और आरके लक्षमण कार्टूनिस्ट की उसमें दो कार्टून भी लगये गए। यह मेरी पहली रिपोर्ट थी। दिनमान जैसी पत्रिका से शुरुआत को मैंने अपने जीवन का लक्ष्य बना लिया। …और एमए करने के साथ साथ ही 1980 से मैं पत्रकारिता करने लगा।
तब आसान लग रहा होगा और अब कैसा लग रहा है ?
-तब अधिक मुश्किल था। जैसे अनुभव बढ़े तभी आसान लगा।1980 से 1985 के दौरान स्वतंत्र पत्रकारिता की।1982 में प्रेस आंदोलन के समय पटना आ गया। अब पटना में स्वतंत्र पत्रकार के रूप में कई लोग सक्रिय थे। नवेन्दु, श्रीकांत, संतोष सुमन, अंचल सिन्हा, कुमार रंजन, प्रियरंजन भारती, राजीव रंजन नाग, सुशिल भारती, अशोक कुमार, एमके सिन्हा आदि। कई ऐसे पत्रकार सक्रीय थे। वह संघर्ष काल था। आपस में अघोषित कॉम्पिटिशन था कि किसकी रिपोर्ट किस पत्रिका में छपी।

कभी अफ़सोस हुआ अपने पत्रकार होने पर ?
-कभी कभी। जब कभी आर्थिक संकट के दौर से गुज़रा तो लगा कि कटिहार के केबीआ कॉलेज की हो गई नौकरी (लेक्चररशिप ) को बेकार ही ठुकरा दिया।
गर्व कब महसूस हुआ ?
-गर्व तब महसूस होता है जब मेरे पेशागत विरोधी भी मेरे बारे में अनुकूल टिप्पणी करते हैं। पत्रकारिता के दौरान कई ऐसे मौके आय जब शुरू के काम पर संतुष्टि मिली। जब कभी मेरी रिपोर्ट से आमजन या प्रताड़ित को लाभ मिला तब संतुष्टि मिली।
कोई ऐसी उपलब्धि जो पत्रकार होने के कारण ही मिली हो?

काजल की कोठरी में रहकर बेदाग रह जाने को ही मैं सबसे बड़ी उपलब्धि मानता हूँ।
आपका कोई ऐसा ब्रेकिंग जो राष्ट्रीय स्तर पर हिट हुआ हो ?
लालू प्रसाद मार्च 1990 में सीएम बने थे और दिसम्बर 1990 में ही रांची एक्सप्रेस में चारा घोटाला पर मेरी विस्तृत रिपोर्ट छपी थी। उस रिपोर्ट में मैंने जिन जिन मामलों की चर्चा की थी उसमें कई ऐसे मामले 1996 में घोटाला पकड़ में आने के बाद पटना हाईकोर्ट में दर्ज हुए मामले में शामिल किये गए थे और कोर्ट ने संज्ञान लिया।
अर्थात मेरी रिपोर्ट का आधार पुख्ता था। इसी प्रकार बीपीएससी में चल रहे भ्रष्टाचार और उसके तत्कालीन चेयरमैन रामाश्रय यादव के कारनामों पर मेरी रिपोर्ट लगातार रांची एक्सप्रेस में छपी। देश के तात्कालीन राष्ट्रपति ने रामाश्रय यादव को बर्खास्त किया, तो उन्हीं आरोपों को आधार बनाया गया, दूसरी ओर मेरी ऐसी ही रिपोर्टों को आधार बना कर लालू सरकार ने वर्षों तक रांची एक्सप्रेस का विज्ञापन बंद रखा था। पिछले दिनों मुज्जफरपुर बालिका गृह कांड का मामला सामने आया। इसी प्रकार पटनासिटी उत्तर रक्षा गृह के मामले को मैंने उजागर किया था। केयर होम की लड़कियों को यौन शोषण से सम्बंधित मेरी रिपोर्ट दिल्ली प्रेस द्वारा प्रकाशित भू भारती में 1985 में प्रकाशित हुई थी। इस रिपोर्ट पर काफी हंगामा हुआ था और जान से मारने की धमकी भी मिली थी।
क्या उस ब्रेकिंग का प्रॉपर क्रेडिट आपको मिला?
-क्रेडिट भी नहीं मिला और अख़बार के प्रबंधक और लालू सरकार की नज़र में मैं विलेन भी बना रहा। 1996 में चारा घोटाला उजागर होने के बाद इसका क्रेडिट लेने की होड़ लग गई। जिसकी आवाज, जितनी बुलंद क्रेडिट उसके खाते में।


पत्रकारिता के इस संघर्ष को आप कैसे देखते है?

-प्रतिष्ठित पत्रिका के विद्वान् संपादक धर्मवीर भारती ने अपने एक इंटरव्यू में कहा था कि सबसे बेहतर पत्रकार वही है, जो मध्यवर्गीय समाज से आता है। क्योंकि मध्यवर्गीय समाज से आये हुए लोग फाइव स्टार कल्चर और झोपड़पट्टी कल्चर में खुद को एडजस्ट कर सकते हैं। जबकि उच्च वर्ग से आने वाले झोपड़पट्टी में जाने से और निम्न वर्ग से आने वाले फाइव स्टार कल्चर में जाने से हिचकते हैं। मेरा भी मानना है कि आर्थिक संघर्ष को भी मध्यमवर्गीय बेहतर तरीके से झेल लेता है, लेकिन अब के पत्रकार संघर्ष करना ही नहीं चाहते और जल्दबाज़ी में वे गलत रस्ते पर चल जाते हैं।
पत्रकारिता में तकनीक का विकास दिख रह है लेकिन इसके स्तर में कितना बदलाव आया है?
जो बदलाव हिंदी सिनेमा में आया है वही बदलाव पत्रकारिता में भी आया है। पहले के सिनेमा में तकनीक कमजोर था, लेकिन कहानी, गीत, संगीत, अभिनय आदि हर पक्ष में बेहतर था। उसी प्रकार आज की पत्रकारिता तकनीक के मामले में काफी आगे निकल चुकी है, लेकिन पत्रकारिता अपने मिशन को भूलती जा रही है। यही कारण है कि पहले समाज में पत्रकार को जिस सम्मान की नज़र से देखा जाता था, उस सम्म्मान में भी भारी कमी आई है।


इलेक्ट्रॉनिक मीडिया की आज की पत्रकारिता शैली पर आप क्या कहेंगे?
इलेक्ट्रॉनिक मीडिया को हम ग्लैमरस पत्रकारिता मानते हैं। किसी ज़माने में सफ़ेद ड्रेस वाले खिलाडियों का पांच दिवसीय टेस्ट मैच होता था। क्रिकेट प्रेमियों के अलावा किसी की विशेष रुचि नहीं होती थी। अब रंगीन ड्रेस, डे-नाईट और फटाफट क्रिकेट ने क्रिकेट को ग्लैमरस बना दिया है। इससे क्रिकेट के प्रति आमलोगों की रुचि बढ़ी है।उनमें भी, जिन्होंने अपने जीवन में कभी क्रिकेट नहीं खेला है। यही हाल इलेक्ट्रॉनिक मीडिया का है। इसका एक मात्र सकारात्मक पक्ष यह है कि यह ख़बरों को तुरंत पहुंचा देता है। ख़बरों के मामले में लोगों को अपडेट किये रहता है लेकिन टीआरपी की होड़ में इसका भी व्यवसायीकरण हो गया है।