कभी कांग्रेस का पर्याय माने जाते थे सदानंद सिंह। कहलगांव, संयुक्ता विद्रोही। पूर्व विधानसभा अध्यक्ष सदानंद सिंह नहीं रहे। बुधवार की सुबह लगभग 9 बजे पटना के एक निजी अस्पताल में सदानंद बाबू ने आखिरी सांस ली। इसी के साथ बिहार कांग्रेस ने पार्टी का सबसे बड़ा पिछड़ा चेहरा खो दिया। कांग्रेस सहित सभी दलों के आला राजनीतिज्ञों के साथ उनका मधुर संबंध रहा। लालू प्रसाद हों या नीतिश कुमार सभी दलों के राजनेता व सुप्रीमो उनका समान भाव से आदर करते थे। यह खासियत आज विरले नेताओं में होती है।
सदानंद सिंह राजनीतिक जीवन अनुकरणीय है। 1967 में इन्होंने कांग्रेस की सदस्यता ग्रहण की और महज 25 साल की उम्र में 1969 में पहली बार बिहार विधान सभा के ये सदस्य बने। इसके बाद उन्होंने कभी पीछे मुड़कर नहीं देखा। अपनी लोकप्रियता और राजनैतिक सूझबूझ के बूते 1972, 1977 और 1980 में लगातार जीत हासिल की। बाबजूद इसके 1985 में कांग्रेस ने इनका टिकट काट दिया। तब ये निर्दलीय प्रत्याशी के रुप में चुनावी अखाड़े में उतर आये और शेर छाप के चुनाव चिहृन से चुनाव जीत गए। तब कांग्रेस आलाकमान की नजर में इनका कद और उंचा हो गया। कहलगांव में तो सदानंद को कांग्रेस का पर्याय ही माना जाने लगा। ऐसा माना जाने लगा कि यहां कांग्रेस के वोटर नहीं, बल्कि सदानंदी वोटर हुआ करते थे।
इसी बीच जनता दल से लालू प्रसाद की लोकप्रियता बढ़ी तो 1990 और 1995 के चुनाव में वे सदन से बाहर रहे, परंतु सत्ता के गलियारे में उनका कद इतना उंचा था कि वे हार कर भी विजेता की भांति जनता के बीच सक्रिय रहते और 2000 के चुनाव में फिर से सदानंद बाबू जीत हासिल कर गए। इस बार उन्हें बिहार विधान सभा का अध्यक्ष बनाया गया। 2005 के आम चुनाव में पुन: उन्होंने जीत दर्ज की, परंतु त्रिकोणीय संघर्ष के कारण किसी भी दल की सरकार नहीं बन पायी। लिहाजा 2005 में ही फिर से चुनाव हुआ और इस बार वे जदयू के अजय मंडल से चुनाव हारे। परंतु फिर 2010 में ये विधान सभा सदस्य बने। अंतिम बार 2015 में चुनाव जीते और 2020 में राजनीति से सन्यास लेते हुए अपनी राजनैतिक विरासत अपने पुत्र शुभानंद को सौंप दिया। परंतु अपने पुत्र को विधायक रुप में देखने की इनकी तमन्ना अधूरी रह गयी।