जितेन्द्र कुमार सिन्हा
प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने अपनी शासनकाल में देश की आम जनता को अपना मानते हैं, इसलिए 26 जनवरी को किसान आन्दोलनकारियों ने ट्रेक्टर रैली के नाम पर जितनी आसानी से लाल किले पर झंडा लहरा दिया, ऐसा नहीं होता, क्योंकि यदि देश का शासक चाहता तो आन्दोलनकारियों को चार कदम भी बढने नहीं देता।
यह सोंचने का विषय है कि देश में मेरी समझ से यह पहली वार है कि देश की चुनी हुई सरकार को देश की अन्य राजनीतिक पार्टियाँ तानाशाह सरकार साबित करने में लगी हुई है जबकि सरकार ने उसके हर कुप्रयास को विफल कर दिया है, चाहे राफ़ेल हो या शाहीन बाग, तीन तलाक हो या धारा- 370, चीन-भारत बॉडर हो या किसान आन्दोलन, सभी में विरोधि एक्सपोज होते चले गए। सरकार ने विरोधियों की अराजकता को पूरी दुनियाँ के सामने दिखा दिया गया है कि आप एक पेड आन्दोलन में शामिल थे।
26 जनवरी को लाल किला की जो घटना हुई इसे अगर विरोधी समझता है कि प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी सहित सरकार एक्सपोज़ हो गई है तो यह उनकी भूल होगी, क्योंकि सरकार ने आपको एक्सपोज़ कर दिया है कि किस प्रकार नेशनल डे तक किसी भी आंदोलन को खींचा जाता है और उसे शाहीन बाग जैसी घृणित आंदोलन की शक्ल दी जाती है। सरकार ने क्रियाकलाप का भीषण विरोध भी नही किया और यह संदेश भी दे दिया कि आप में अराजकता है।
लाल किला की सड़कों पर जिस तरह से तलवारें लहराई गयी, जिस तरह से ईंट पत्थर फेंके गए, ट्रैक्टर से पुलिस वालों को कुचलने की कोशिश की गई, इन सब चीजों को जनता चैनलों के माध्यम से सीधा देखती रही है।
यह सोंच कर डर लगता है कि कहीं जिहादी इस आंदोलन में घुसकर और ज्यादा उत्पात न मचा दें, क्योंकि अभी तक खून खराबा नहीं हुआ है। विरोधियों की सोच रही हो कि सरकार इनका खूब विरोध करेगी और सैकड़ों लोगों की लाशें गिरेगी, जिससे लोग सरकार द्वारा किये गए सारे अच्छे कार्यों को भूला देगी और वर्षो तक इस दिन को काला दिवस के रूप में मनाया जायेगा।
हमलोग बचपन में किताब में पढ़ा था कि राजा समस्त प्रजा के लिए पिता समान होता है। इस बात को लगता है कि प्रधानमंत्री ने 26 जनवरी की उदंडता को माफ कर के अपने कर्तव्य का निर्वहन किया है। लेकिन अगर जिहादी इसमे घुसकर उत्पात मचाये तो उन्हें भीषणतम दंड देना भी राजा का कर्तव्य होता है। ऐसी उम्मीद की जा सकती है कि प्रधानमंत्री अपने इस कर्तव्य का भी निवर्हन करेंगे।
लाल किले पर झंडा फहराए जाने को ऐसा समझना चाहिए कि हमारे देश में कृष्ण युग है। कृष्ण युग में शिशुपाल को 99 तक माफ किया गया था, जहाँ कालयवन को स्वयं न मारकर राजा मुचुकुन्द की दृष्टि से मरवाया गया था। अभी के समय में कालयवन पेड आंदोलनकारी को माना जा सकता है और राजा मुचुकुंद देश की जनता को।
अब थोरा सोचीये की 20 साल से हम लोग इंपोर्टेड दाल खा रहे थे। 2 साल पहले मोदी ने इस पर रोक लगानी शुरू कर दी और अब पूरी तरह से बंद कर दिया गया। कृषि बिल तो बहाना है, सही बात तो यह है की 2005 में मनमोहन सरकार में दाल पर दी जा रही सब्सिडी को खत्म कर दी गई। उसके 2 साल के बाद मनमोहन सरकार ने नीदरलैंड ऑस्ट्रेलिया और कनाडा से समझौता कर दाल आयात करना शुरू कर दिया। कनाडा ने अपने यहां लेंटील दाल के बड़े-बड़े फार्म स्थापित किए जिसकी जिम्मेदारी वहां रह रहे पंजाबी सिखों के पास था। कनाडा से भारत में बड़े पैमाने पर दाल आयात होने लगा। वर्त्तमान सरकार ने आयात पर रोक लगा दी, जिससे कनाडा के फार्म सूखने लगे।खालिस्तानियों की नौकरी जाने लगी इसीलिए जस्टिन ट्रुडो ने किसानों के आंदोलन का समर्थन किया था। कनाडा के खालिस्तानी सिखों को पंजाब वापस भेजा जाएगा। इसलिए कृषि कानून का सबसे ज्यादा विरोध विदेशी ताकते और खालिस्तानी सिख कर रहे है।
प्रधानमंत्री ने भारत को विकसित करने का बीडा उठाया है और जनता भी साथ दे रही है, जल्द ही भारत की आर्थिक हालत विश्व मे सबसे अच्छी होगी क्योंकि जिस देश में अन्न बाहर से खरीदना नहीं पड़ता वही देश सबसे जल्द् विकसित होते है। अब भारत का किसान अमीर होगा तो इन्हें तो कष्ट होगा ही।