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” ख़ामोशी में भी ख़ामोशी नहीं होती… वहाँ भी अल्फ़ाज़ बोलते हैं “: नीलांशु रंजन

नीलांशु रंजन पत्रकारिता से परे अब शायर और गीतकार के रूप में अपनी मजबूत उपस्थिति दर्ज करा चुके हैं। फिलवक्त वो मुंबई में हैं और ग्लैमर ग्राउंड की पिच पर चौका-छक्का लगाने को तैयारी में हैं। ख़्वाब गीतकार बनने का है लेकिन स्टोरी और स्क्रिप्ट गढ़ने का हुनर भी इनके पास है। इनका तालुक़ात बेग़ूसराय से रहा है।पिताजी शैलेंद्र मोहन सिन्हा उर्फ़ शैल बाबू एक नामी वकील थे और चाहते थे कि बेटा नीलांशु रंजन भी वकील ही बनें। लेकिन रचनात्मकता की भूख और पत्नी निशा पंकज का समर्थन और सहयोग से वो बेगूसराय से पटना आ गए ।
विनोद दुआ की परख कार्यक्रम से करियर की शुरुआत हुई। ई टीवी से प्रतिष्ठा और पहचान मिली तो रचनात्मकता की भूख और तेज होती चली गई। फिर शायर, गीतकार और उपन्यासकार तक बन गए।अब एक नए मुक़ाम के लिए मुंबई तशरीफ़ लाए हैं । नीलांशु रंजन की इस रचनात्मक यात्रा पर मुकेश महान की लंबी बातचीत हुई। यहाँ प्रस्तुत है उसके मुख्य अंश –
शशि सम हंसी असि, ऐसी है वाराणसी

उपन्यासकार, शायर व गीतकार नीलांशु रंजन से मुकेश महान की बातचीत.
सवाल- आप लम्बे दिनों तक टीवी पत्रकारिता से जुड़े रह। राष्ट्रीय अख़बारों में राजनीतिक- सामाजिक विषयों पर आलेख लिखते रहे। फिर एकाएक साहित्य की ओर उन्मुख हो ग ए और ख़ासकर उर्दू शायरी की ओर।क्या माना जाए- कुछ ख़ालीपन था जिसकी भरपाई आप साहित्य के ज़रिए करना चाह रहे हैं?

जवाब- देखिए, ऐसा है, अगर आप सोचते हैं और आप में संवेदना बची हुई है तो यह ख़ालीपन हमेशा बरक़रार रहेगा। आप कभी भरते नहीं हैं और मेरे ख़याल से यह एक सकारात्मक अलामत है। मैं इस ख़ालीपन को, जिसकी ओर आप इशारा कर रहे हैं, मैं इसे ग़लत या नकारात्मक नहीं मानता।यह ख़ालीपन आपको एक मायने में क्रिएटिव बनाता है।लेकिन यह क्रिएटिविटी तब होगी जब आप अपनी सोच, अपने ख़ालीपन को लेकर सकारात्मक होंगे।हाँ, जहाँ तक आपका सवाल है कि एकाएक साहित्य की जानिब मुड़ गए तो एकाएक कुछ भी नहीं होता।कुछ आपके अन्दर पक रहा होता है।लिखने का- कुछ रचने का मन में चल रहा था और पत्रकारिता करते हुए मैंने कुछ कहानियाँ लिखीं जो विभिन्न पत्रिकाओं में छपीं. पत्रकारिता में भी सफ़र बहुत आसान नहीं रहा- कई उतार- चढ़ाव देखे मैंने। इस उतार- चढ़ाव ने ज़िन्दगी में बहुत कुछ सिखाए।साहित्य एक ऐसा माध्यम है जहाँ आपकी अनुभूतियाँ, आपके माज़ी, आपके गुज़रे हुए लम्हे काम आते हैं। गुज़रे हुए लम्हे गुज़रे हुए नहीं होते।

सवाल- मेरा एक सवाल था उर्दू शायरी को लेकर भी। उर्दू शायरी की तरफ़ कैसे आना हुआ?

जवाब- पता नहीं, मैं उर्दू की तरफ़ खिंच गया या उर्दू ने मुझे खींच लिया।लेकिन उर्दू से मेरी मुहब्बत बहुत पहले से रही है।देखिए, उर्दू एक बेहद तहज़ीबी ज़बाँ है… बहुत ही ख़ूबसूरत।अगर कुछ नफ़ासत से बयां करना हो तो उर्दू बहुत ही ख़ूबसूरत ज़बाँ है।बहुत कशिश है इस ज़बाँ में।वो गुलज़ार कहते हैं न ” उर्दू बोलने में नशा सा आता है।

जैसे पान में घुलता है मंहगा क़िमाम
हलक़ में उतरता है घूंट मय का.. “

सवाल- जिस तरह आप लिखते हैं, बोलते हैं, उससे ऐसा लगता है उर्दू से आपका पुराना राबिता रहा है।

जवाब- हां, काफ़ी पहले से उर्दू से मुहब्बत हो गई. यह एक ऐसी मेरी मुहब्बत है, जो मैं ऐलानिया तौर पे कह सकता हूँ बिना किसी हिचक के।कालेज के समय में ही मैंने उर्दू सीखने की नाक़ामयाब कोशिश की थी।इधर तीन- चार साल क़व्ल मैंने उर्दू सीखी- इसके रस्मुलख़त को जाना- समझा और मैं मम्नून हूँ अपने उस्ताद नूर आलम साहिब का जिन्होंने बहुत ही वैज्ञानिक तरीक़े से पढ़ाया।अगर आप नज़्में लिखते हैं या ग़ज़लों को कहते हैं तो उर्दू तो जाननी ही चाहिए.

सवाल- लेकिन दुष्यंत कुमार ने तो हिन्दी में ग़ज़लें कीं और मक़बूल हो गये।

जवाब– पता नहीं क्यों, यह भ्रम पैदा हो गया है कि उन्होंने हिन्दी में ग़ज़लें की।मैं दुष्यंत कुमार को मुकम्मल तौर से हिन्दी ग़ज़लकार नहीं मानता।उन्होंने हिन्दी अल्फ़ाज़ का बेशक इस्तेमाल किया है।लेकिन क्या उनमें उर्दू अल्फ़ाज़ नहीं हैं? बहुत सारे उर्दू अल्फ़ाज़ हैं उनके अश्आर में।मसलन,
” वो मुत्मइन हैं कि पत्थर पिघल नहीं सकता
मैं बेक़रार हूँ आवाज़ में असर के लिए.” मुत्मइन, बेक़रार, आवाज़, असर- ये तो उर्दू अल्फ़ाज़ ही हैं न!
या फिर
” कहाँ तो तय था चिराग़ां हर एक घर के लिए
कहाँ चिराग़ मयस्सर नहीं शहर के लिए.” चिराग़, मयस्सर, शहर- ये तो उर्दू अल्फ़ाज़ ही न हैं।इसलिए यह कहना कि उन्होंने हिन्दी में ग़ज़लें कीं, मैं नहीं सहमत हूँ।हाँ, यह ज़रूर है कि ग़ज़ल जो बेहद कठिन उर्दू- फ़ारसी अल्फ़ाज़ की वजह से कठिन थी, उसको कुछ आसान किया उन्होंने।अगर आप मीर व ग़ालिब को पढ़ेंगे तो उनके ही मूड में आपको पढ़ना होगा.


सवाल- आपका उपन्यास है ” ख़ामोश लम्हों का सफ़र ” और आपकी नज़रों का संग्रह है ” रात, ख़ामोशी और तुम… ” ख़ामोशी से कुछ ख़ास रिश्ता आपका?

जवाब- ख़ामोशी के दरमियाँ भी ख़ामोशी नहीं होती। ख़मोशियों के भी लफ़्ज़ होते हैं और वे लफ़्ज़ बोलते हैं।आप उन ख़ामोशियों को कैसे पकड़ते हैं, यह आप पर निर्भर करता है।
” कुछ भी ख़ामोश नहीं हमारे- तुम्हारे दरमियाँ
कंपकंपाते होठों की ज़बाँ को ज़रा समझो” .

सवाल- ” ख़ामोश लम्हों का सफ़र ” विवाहेतर प्रेम पर आधारित है।आपका यह पहला उपन्यास है और वो भी विवाहेतर प्रेम पर।कैसे आया यह आइडिया?

जवाब- ऐसा है, साहित्य में मौजू कुछ भी हो सकता है- चाहे वह विवाहेतर मुहब्बत हो या विवाह के पहले की मुहब्बत हो।कमबख़्त मुहब्बत तो कभी भी हो सकती है।और दूसरी बात, आज विवाहेतर प्रेम जगजाहिर होने लगा है।यह पहले भी था, लेकिन छुपते- छुपाते।आज यह कुछ खुलकर सामने आ गया है।यह हमारे समाज की सच्चाई है।लेकिन मेरे उपन्यास में Extra marital Affair है, Extra martial Relation नहीं।Extra marital relation तो बहुत साधारण चीज़ है।मेरे उपन्यास में नायक- नायिका में मुहब्बत है।यह एक संयोग है कि दोनों विवाहित हैं और उसके अंतर्द्वंद्व भी हैं।

सवाल- इसके बाद और कोई उपन्यास जो आने वाला हो?
जवाब- जी हाँ, एक उपन्यास मुकम्मल किया है लाकडाउन में।मैं समझता हूँ वह तीन- चार महीने में आपके सामने होगा। इस उपन्यास का उनवान है ” फ़ासले-दर- फ़ासले”।

सवाल- उसका विषय वस्तु क्या है?

जवाब- वह साम्प्रदायिक दंगे पर आधारित है और मैंने दिखलाया है कि साम्प्रदायिक दंगों को सियासतदां हवा देते हैं सिर्फ़ और सिर्फ़ अपने फ़ायदे के लिए।आम-अवाम को इन चीज़ों से मतलब नहीं होता।वे तो रोज़ी-रोटी व परिवार में ही उलझे होते हैं।ये सब राजनेताओं और उनके मुठ्ठी भर समर्थकों के सियासी खेल होते हैं।आप उनके नैरेटिव्स को समझिये और तब बातें समझ में आएंगी। मौजूदा हालात आप देख लीजिए।कितने नैरेटिव्स बनाए जा रहे हैं।
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सवाल- तो विवाहेतर प्रेम से सीधे आप सामाजिक- राजनीतिक विषय पर आ गए।

जवाब- मैंने पहले भी कहा कि साहित्य में मौजू कुछ भी हो सकता है।अगर आपका मतलब प्रेम से है तो प्रेम यहाँ भी है।साम्प्रदायिक दंगे के साथ- साथ एक प्रेम कथा भी चल रही है।प्रेम कह लें, मुहब्बत कह लें, वह तो रहेगी ही- वह तो बहुत बुनियादी है।साहित्य का फ़लक बहुत फैला हुआ होता है।
सवाल- अब कुछ बातें आपकी शायरी को लेकर।आपकी नज़्मों का जो संग्रह है ” रात, ख़ामोशी और तुम… ” उसमें तक़रीबन सभी नज़्में मुहब्बत की नज़्में हैं।एक चीज़ जो कामन है आपकी नज़्मों में वह है चांद, मुस्कुराहट, ज़ुल्फ़ें वग़ैरह- वग़ैरह।वो चांद, वो मुस्कुराहट किसकी है?

जवाब- मुस्कुराहट किसी की भी हो, उससे क्या फ़र्क़ पड़ता है? देखना है कि नज़्म कितनी ख़ूबसूरत बन रही है।और एक बात, कुछ भी जो घटित होता है, वह एक ख़ास वक़्त में।वक़्त गुज़र जाता है, मायने बदल जाते हैं।गुलज़ार कहते हैं न ” नाम गुम जाएगा, चेहरा ये बदल जाएगा
मेरी आवाज़ ही पहचान है गर याद रहे.”


सवाल- जब आपने गुलज़ार की बात की तो याद आया।कुछ लोग कहते हैं कि आपकी नज़्मों पर गुलज़ार की नज़्मों के अक्स हैं।

जवाब- हो सकता है। आप किसी न किसी से मुत्तासिर तो होते हैं और बेशक मैं गुलज़ार साहिब से मुत्तासिर रहा हूँ। हो सकता है इस वजह से उनकी नज़्मों का साया मेरी नज़्मों पे पड़ा हो।लेकिन मेरी अपनी स्टाइल है, मेरी अपनी इमेजरी है।आप किसी न किसी से प्रभावित तो होते ही हैं।गुलज़ार साहिब की नज़्मों में ग़ालिब का अक्स दिखाई पड़ता है।यह हर क्षेत्र में है।शुरू में अमिताभ बच्चन के अभिनय को देखें, वे दिलीप कुमार से पूरी तरह प्रभावित दिखते हैं।गायकी में भी वही है,लेकिन अंततः आपका अपना स्टाइल ही काम आता है।

सवाल- आपकी नज़्मों का सफ़र कब शुरू हुआ?
जवाब- 2014 में मैंने पहली नज़्म लिखी थी ” प्यार में भीगी वह लड़की “। वह “अहा! ज़िन्दगी ” में प्रकाशित भी हुई थी।उसके बाद न थमने वाला सिलसिला शुरू हो गया।

सवाल- तो नज़्मों का सफ़र ज़्यादा पुराना नहीं है।
जवाब- जी, मात्र छह-सात साल का सफ़र है यह।लेकिन इन छह-सात सालों में मैंने काफ़ी नज़्में लिखी हैं।अब तो दूसरे संग्रह के लिए भी मेरे पास पर्याप्त नज़्में हैं। अब मेरे लिखने में भी बहुत फ़र्क़ आ गया है।इस फ़न में क़ाबिलियत हासिल करने के लिए मैंने मेहनत बहुत की।अभी भी बहुत कुछ जानना- समझना बाक़ी है।समन्दर है बिल्कुल यह।अभी तो उस समन्दर से कुछ घूंट ही पीया हूँ.

सवाल- आपने गीत भी लिखे हैं और फ़िलवक़्त आप मुंबई में हैं और क़िस्मत आज़मा रहे हैं फ़िल्मों में।
जवाब- हां, सोचा देखा जाए।मुझे लगा कि मेरे गीत बड़े सोलफुल हैं।बहुत चालू गीत मैं लिख नहीं पाता।जिसमें संगीत हो, अल्फ़ाज़ हों, कुछ मायने हों, वैसे गीत मुझे पसंद हैं।

सवाल- लेकिन अभी जब संगीत के नाम पर शोर है, अल्फ़ाज़ ग़ायब हैं तो आप कितनी उम्मीद रखते हैं?
जवाब- मेरा जवाब आपने ख़ुद दे दिया.आप ख़ुद मानते हैं कि संगीत नहीं, शोर है, अल्फ़ाज़ बेतुके हैं या नहीं हैं।ऐसे गीत आते हैं, जाते हैं. कोई याद भी नहीं रखता।और अच्छी मौसिक़ी, अच्छे गीत का दौर फिर आएगा. बस, थोड़ा इंतज़ार कीजिये।